Friday, September 9, 2016

त्रिशंकु


वैदिक युग में एक प्रतापी राजा हुआ त्रिशंकु। उसकी सदाचारिता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। एक बार उसके मन में एक महत्वाकाँक्षा जागी कि मैं सशरीर स्वर्ग जाऊँ। इसके लिए वह अपने गुरु ब्राहृर्षि वशिष्ठ जी के पास पहुँचा। उसकी बात सुनकर वशिष्ठ बोले-राजन्! तुम्हारी यह कामना कभी पूरी नहीं हो सकती। त्रिशंकु ने उन्हें बहुत मनाया, लेकिन वे नहीं माने। त्रिशंकु ने भी जिद पकड़ ली थी। वह गुरु-पुत्रों के पास पहुँचा और उन्हें सारी बात बताने के बाद बोला-आप सभी से मेरी बिनती है कि गुरु बनकर मेरी इच्छा पूरी करें। उसकी बात सुनकर गुरु-पुत्र बोले-महाराज! जब हमारे पिता आपकी बात को अस्वीकार कर चुके हैं तो फिर आपको हमारे पास नहीं आना चाहिए था। अब हम कुछ नहीं कर सकते। जब गुरु-पुत्र नहीं माने तो त्रिशंकु बोला-फिर तो मुझे किसी और ऋषि की सहायता लेना होगी। उसकी बात सुनकर गुरु-पुत्रों को क्रोध आ गया और उन्होने उसे शाप देकर चांडाल बना दिया। चांडाल बनने के बाद भी उसकी जिद्द खत्म नहीं हुई। वह सहायता के लिए विश्वामित्र के पास पहुँचा और उन्हे सारी जानकारी देते हुए बोला- अब तो मैं आपकी शरण में हूँ ऋषिवर। वशिष्ठ जी के लिए भले ही ऐसा करना संभव न हो लेकिन आप निश्चित ही अपने तपोबल से मेरी इच्छा पूरी कर सकते हैं।
     दरअसल उसने विश्वामित्र की कमजोरी पकड़ ली थी, क्योंकि उस समय उनकी वशिष्ठ से प्रतिद्वंद्विता थी। इसलिए जब भी कोई ऐसी बात होती, जिससे वे स्वयं को वशिष्ठ से श्रेष्ठ साबित कर सकें, वे ज़रूर करते थे। उन्होने त्रिशंकु से कहा कि हम तेरी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे। इसके लिए उन्होने एक यज्ञ किया। यज्ञ के अंत में उन्होने देवताओं का आह्वान किया कि वे त्रिशंकु को स्वर्ग में स्थान दें। जब देवता नहीं माने तो विश्वामित्र को क्रोध आ गया। उन्होने आकाश की ओर देखा और बोले-त्रिशंकु! तुम जिस दशा में हो, उसी में स्वर्ग जाओ। उनका वाक्य पूरा होते ही त्रिशंकु स्वर्ग की ओर जाने लगा। जैसे ही वह स्वर्ग के द्वार पर पहुंचा, इंद्र ने उसे रोककर कहा-अधम राजा! गुरु पुत्रों से शापित होने के बाद तुझे स्वर्ग में स्थान नहीं मिल सकता। तू पाताल में जा। और त्रिशंकु नीचे गिरने लगा। उसने विश्वामित्र के पुकारा-मुझे बचाओ! विश्वामित्र भी हार मानने वाले नहीं थे। वे बोले-तू जहाँ है, वहीं ठहर जा। मैं तेरे लिए नए स्वर्ग की सृष्टि करता हूँ। उन्होंने नए ग्रह और नक्षत्र पैदा कर दिए। जब वे नए स्वर्ग की रचना कर रहे थे, तो सभी देवता उनके पास पहुँचे। इंद्र ने त्रिशंकु को स्वर्ग में प्रवेश न देने का कारण बताया। विश्वामित्र को बात समझ में आ गई। लेकिन उन्होने अपनी रचनाओं को बने रहने देने की बात कही। इस पर दवताओं ने "तथास्तु' कहा और ग्रह-नक्षत्रों से घिरा त्रिशंकु वहीं उलटा लटका रह गया।
     त्रिशंकु आज भी उलटा लटका हुआ है। ऐसा लगता है जैसे वह लोगों को सीख दे रहा हो कि अति महत्वाकांक्षी होने का परिणाम क्या होता है। एक सदाचारी राजा को उसकी एक महत्वाकाँक्षा ने कहाँ पहुँचा दिया। हम यह नहीं कहेंगे कि आप महत्वाकांक्षी न बनें क्योंकि महत्वाकांक्षी होना कोई बुरी बात नहीं। लेकिन यह सोच लें कि हम अपनी इच्छापूर्ति किसी की भावनाओं व मज़बूरियों का फायदा उठाकर या उन्हें दबाकर तो नहीं कर रहे। हमसे किसी का निरादर तो नहीं हो रहा। ऐसा होने पर हमारी गति भी त्रिशंकु की तरह ही होगी। महत्वाकांक्षी या यशस्वी होने की इच्छा होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन इसकी अति घातक है। अति सफलता के चक्कर में लोग हाथ आई छोटी छोटी सफलताओं को छोड़ देते हैं और फिर वे न घर के रहते हैं, न घाट के। वैसे भी त्रिशंकु जैसी कामनाएँ जीवन के सारे सुख-चैन खत्म कर देती हैं।
     यह कहानी हमें अपनी महत्वकांक्षा पूरी करने के लिए त्रिशंकु की तरह गलत तरीका न अपनाने की सीख भी देती है। जब गुरु नहीं माने तो गुरु पुत्र ही सही, गुरु-पुत्र नहीं माने तो उनके प्रतिद्वंद्वी ही सही। हमें तो अपना काम निकालना है। यह था त्रिशंकु का तरीका। वर्तमान में भी किसी आफिस में, जहां सत्ता के कई केन्द्र होते हैं, यह तरीका अपनाते हुए आपको कई "त्रिशंकु' मिल जाएँगे। हम उन्हें त्रिशंकु इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि वे भी अपना काम करवाने के लिए एक अधिकारी द्वारा मना करने पर दूसरे के पास फिर तीसरे के पास पहुँच जाते हैं। हो सकता है वे एकाध बार इसमें सफल हो जाएं। लेकिन अंततः नुकसान उन्ही का होता है। जैसे विश्वामित्र और इंद्र के एक होने पर त्रिशंकु आसमान में लटका रह गया। इसलिए ऐसी कोशिश न करें। दूसरी ओर विश्वामित्र की भूमिका में बैठे लोगों को गुरु-पुत्रों से सीख लेनी चाहिए कि यदि एक जगह से मना हो गई तो वह बात वहीं खत्म हो जाना चाहिए। यदि बात बहुत ज़रूरी है तो बिना कर्मचारी को बताए उस सहयोगी से अलग से बात कर लें, जो उसकी बात को अस्वीकार कर चुका है। इससे उस कर्मचारी की इधर-उधर भटकने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगेगी।

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