Wednesday, September 21, 2016

शिष्य की गढ़त


     स्वामी रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों को हमेशा एक माँ की तरह ही स्नेह से रखते थे। वे अपने शिष्यों के साथ खेलते, हँसी-ठिठोली करते, भोजन करते और अपने स्वभावानुसार बहुत ही सहज तरीके से उन्हें व्यावहारिक व आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा भी देते। उनके शिष्य भी अपने गुरु के प्रति पूरी तरह समर्पित थे।
     एक बार उनका निरंजन नामक शिष्य नाव में बैठकर गंगा पार कर रहा था। नाव में और भी लोग सवार थे। अचानक दो व्यक्ति रामकृष्ण के बारे में बातें करने लगे। एक बोला-तुमने रामकृष्ण को देखा है? वह पागलों की तरह व्यवहार करता है। इस पर दूसरा व्यक्ति बोला-नहीं, देखा तो नहीं, लेकिन सुना ज़रूर है। सुनते हैं कि एक पहलवान से ज्यादा खुराक है उसकी। उन दोनों से अपने गुरु की निंदा सुनकर निरंजन को क्रोध आ गया। वह उन्हें टोकते हुए बोला- हे महाशय! सुनो, उनके बारे में अब एक शब्द भी उलटा मत बोलना। मैं उनका शिष्य हूँ, मैं जानता हूँ वे क्या हैं। वे पहुँचे हुए महात्मा हैं।
     इस पर एक व्यक्ति बोला-तुम भी पागल हो जो उस पागल की बातें मानते हो। उसकी बात सुनकर निरंजन का क्रोध और बढ़ गया। वह चेतावनी देते हुए बोला-यदि तुमने मेरे गुरु के विरुद्ध अब एक शब्द भी बोला तो मैं तुम्हें उठाकर नदी में फेंक दूँगा। बात बढ़ती देख अन्य यात्रियों ने बीच-बचाव करके जैसे-तैसे मामला शांत किया। जब निरंजन अपने गुरु के पास पहुँचा तो उसने नाव वाली घटना उन्हें बताई। उसकी बात सुनकर रामकृष्ण बोले- तुम्हें इतनी-सी बात पर इतना अधिक नाराज़ होने की क्या आवश्यकता थी? क्या उनके कहने का मुझ पर कोई असर हुआ? तुम्हें कभी भी दूसरों के द्वारा कही गई अनर्गल बातों को सुनकर अपना आपा नहीं खोना चाहिए। हमेशा हर स्थिति में अपना संतुलन बनाकर रखना चाहिए। निरंजन ने गुरु की बात को अपने मन में उतार लिया और बात आई-गई हो गई।
     इस घटना के कुछ समय बाद स्वामी जी का जोगिन नामक एक और शिष्य कहीं खड़ा था कि अचानक उसके पास ही खड़े दो व्यक्ति रामकृष्ण का उपहास उड़ाने लगे, लेकिन जोगिन ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। वह चुपचाप खड़ा उनकी बातें सुनता रहा। वैसे भी वह बहुत ही शांत व शर्मीला प्रकृति का युवक था। बाद में जब रामकृष्ण को इस बात का पता चला तो उन्होने जोगिन को बुलाकर समझाया-पुत्र! जब वे लोग तुम्हारे गुरु का, अनादर कर रहे थे तो तुमने मेरे पक्ष में एक शब्द भी नही कहा। क्या तुम्हारे मन में मेरे लिए इतनी ही श्रद्धा व सम्मान है? जोगिन को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसे भविष्य में इसे न दोहराने का विश्वास दिलाया।
     जब यह घटना निरंजन को पता चली तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। उसे समझ में ही नहीं आया कि गुरु ने उसे कुछ और कहा और जोगिन को कुछ और! यह बात उसने अपने गुरुभाई नरेन को बताई तो उसने उसे समझाया अरे! तुम्हें इतनी-सी बात समझ में नहीं आई। जानते नहीं, वे हम सभी का व्यक्तित्व सुधार रहे हैं। तुम्हारा स्वभाव बहुत ही तेज़ है। तुम ज़रा सी बात पर गर्म हो जाते हो, तो वे चाहते हैं कि तुम शांत रहना सीखो। उधर जोगिन एकदम दब्बू व डरपोक है।  उसकी हिम्मत ही नहीं होती किसी के सामने मुँह खोलने की। इसलिए गुरु जी चाहते हैं कि उसके व्यवहार में थोड़ी दृढ़ता आए, जिससे कि उसकी कायरता दूर हो। निरंजन को नरेन की बात समझ में आ गई। कैसे न आती समझ में, जब समझाने वाला अपने गुरु का प्रिय शिष्य नरेन हो, जिसे बाद में दुनियाँ ने स्वामी विवेकानंद के रुप में जाना।
     ऐसे होते हैं सच्चे गुरु, जो अपने शिष्यों के व्यक्तित्व की छोटी-छोटी कमियों पर भी बड़ी बारीकी से ध्यान देते हैं। और न केवल ध्यान देते हैं, बल्कि बड़ी ही सहजता से उन्हें दूर कर उनके व्यक्तित्व में निखार लाते हैं। जहाँ तक रामकृष्ण जी की बात है, तो उन्हें बचपन से ही मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने का बड़ा शौक था। वे मिट्टी को बड़ी ही कोमलता से ढालकर ऐसी मूर्ति गढ़ते थे कि लगता था कि साक्षात् देव खड़े हों। उन्होने अपने शिष्यों को भी इसी कोमलता के साथ गढ़कर सामान्य पुरुष से महापुरुष के रूप में परिवर्तित कर दिया। इसीलिए शायद गुरु की तुलना कुम्हार से की गई है जो अपने कुंभ रूपी शिष्य को कोमलता के साथ पीट-पीटकर मनचाहे आकार में ढाल देता है। यही स्वामी रामकृष्ण ने भी किया। स्वामी जी का जीवन व्यवहारिकता का एक आदर्श उदाहरण है। वे हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि ज्ञान विकसित होकर विवेक में परवर्तित होना चाहिए, तभी उसके माध्यम से जीवन में आनंद की प्राप्ति संभव है।

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