Friday, August 5, 2016

क्रोध की प्रतिक्रिया क्रोध नहीं


     महाभारत की एक शिक्षाप्रद कथा है। भीष्म ने कौरवों और पांडवों के शिक्षण का दायित्व द्रोणाचार्य को सौंपा था। द्रोणाचार्य की अपनी शिक्षण पद्धति थी और वे किसी शिष्य का पीछा तब तक नहीं छोड़ते थे, जब तक कि शिष्य उनके द्वारा दिए गए पाठ को ठीक से याद न कर ले। एक बार उन्होने अपने सभी शिष्यों को बुलाकर कहा कि आज का पाठ है "क्रोध न कर' आप सभी इस पाठ को याद कर कल मुझे सुनाएँगे। अगले दिन सभी शिष्य जब कक्षा में आए तो द्रोणाचार्य ने सभी से पाठ दोहराने को कहा। युधिष्ठिर को छोड़कर सभी ने पाठ दोहरा दिया।
     गुरु जी ने पूछा-पुत्र! क्या बात है? तू तो इन सबसे बड़ा है, फिर भी तुझे इतना छोटा-सा पाठ याद नहीं हुआ। जा, कल याद करके जरूर सुनाना। युधिष्ठिर ने कहा- जी गुरुदेव! मैं अवश्य प्रयत्न करूँगा। अगला दिन आया और फिर वहीं कहानी दोहराई गई। युधिष्ठिर ने कहा कि उसे पाठ याद नहीं हुआ। गुरु जी ने फिर से अगले दिन याद करके आने को कहा। इस तरह कई दिन व्यतीत हो गए। द्रोणाचार्य हैरान थे कि उनका एक योग्य शिष्य, इसे साक्षात धर्मराज का अवतार माना गया है, इतना छोटा-सा पाठ याद नहीं  कर पा रहा है। बाकी शिष्य आगे के कई पाठ याद कर चुके थे। जब कई दिन व्यतीत हो गए तो एक दिन द्रोणाचार्य ने निर्णय किया कि आज तो मैं इसे पाठ याद करवाकर ही रहूँगा। जब कक्षा प्रारंभ हुई तो उन्होने यधिष्ठिर से प्रतिदिन की तरह पाठ सुनाने को कहा।
     युधिष्ठिर ने कहा-गुरुदेव! बहुत प्रयत्नों के बाद भी मुझे पाठ पूरी तरह याद नहीं हुआ। इसलिए मैं इसे आपको सुनाने में असमर्थ हूँ। गुरुदेव तो पहले ही ठान कर बैठे थे कि आज तो वे किसी भी स्थिति में उसे पाठ याद कराएँगे। युधिष्ठिर का उत्तर सुनकर उन्हें क्रोध आ गया और उन्होने युधिष्ठिर की पिटाई शुरु कर दी। इतना सा पाठ याद नहीं होता तुझे। निरामूर्ख है। ऐसा कहते कहते वे युधिष्ठिर की पिटाई करते जा रहे थे। लेकिन युधिष्ठिर था कि खड़ा-खड़ा मुस्करा रहा था, जैसे उस पर पिटाई का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ रहा हो, उसको मुस्कराते देख गुरुदेव का क्रोध और भी बढ़ता जा रहा था और वे और अधिक शक्ति से उसे पीटने लगे। इस प्रकार पीटते-पीटते जब वे थक गए और उन्होने पीटना बंद कर दिया, तब भी युधिष्ठिर मुस्करा ही रहा था। आचार्य से रहा नहीं गया। उन्होने आश्चर्य से पूछा- मैं तुझे पीट रहा हूँ और तू मुस्करा रहा है?
     गुरुजी की बात सुनकर युधिष्ठिर ने गुरुदेव के थके हाथों को दबाते हुए कहा- जी गुरुदेव! आप ही ने तो सिखाया है "क्रोध न कर।' युधिष्ठिर आगे बोला-इतने दिनों से मैं अनुभव कर रहा था कि जब भी कौरव मेरा उपहास करते हैं, मुझे क्रोध आ जाता है और मैं उस पर नियंत्रण नहीं रख पाता। लेकिन आज मैने पाया कि जब आप मेरी पिटाई कर रहे थे, उस दैरान कौरवों की उपहासपूर्ण भावभंगिमाएँ देखकर भी मुझे क्रोध नहीं आया। अब मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूं कि मुझे यह पाठ याद हो गया है। युधिष्ठिर की बात सुनकर गुरुदेव को अपने किए पर पछतावा होने लगा और वे स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले-पुत्र! सही कहा तुमने। तुम्हें तो यह पाठ याद हो गया, लेकिन तुम्हें सिखाते-सिखाते मैं स्वयं भूल गया था। आज मैने अपने शिष्य से इस पाठ को पुनः सच्चे अर्थों में सीख लिया।
     यही है आज का मंत्र "क्रोध न कर।' लेकिन यह मंत्र तभी फलीभूत होगा, जब आप इसे न सिर्फ याद करें बल्कि व्यवहार में भी लाएँ। यहाँ सीखने वाली एक और बात है कि जब एक व्यक्ति क्रोध कर रहा हो तो हमें प्रत्युत्तर में कभी क्रोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि क्रोध को अग्नि समान माना गया है और आग को बुझाने के लिए कभी आग का प्रयोग नहीं किया जाता। इसलिए ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति को संयम से काम लेना चाहिए, क्योंकि जो क्रोध कर रहा है, उसे बाद में पछतावा अवश्य होगा। कहा भी गया है कि क्रोध मूर्खता से शुरु होता है और पश्चाताप पर खत्म। गुरु द्रोणाचार्य को भी बाद में इसी तरह पश्चाताप हुआ।
     कहते हैं कि क्रोध कुछ पल का पागलपन होता है। इस पर काबू पाने का सबसे आसान उपाय यह है कि जब भी आपको क्रोध आए तो दस तक गिनती गिनें और यदि अधिक क्रोध आए तो हज़ार तक गिने। यह नई बात नहीं है, हम सभी ने अनेक बार सुनी-पढ़ी है, लेकिन क्रोध आने पर हम इस पर अमल नहीं करते और इसी कारण क्रोध के परिणाम भुगतने पड़ते हैं। ये तो हुई कुछ सामान्य सी बातें क्रोध के बारे में। लेकिन केवल इतनी-सी बातों से काम नहीं चलेगा। यह इतना गंभीर विषय है कि इस पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। इसलिए हम आगे भी इस विषय को तब तक दोहराते रहेंगे जब तक कि आप थक-हारकर क्रोध करना न छोड़ दें। आज के लिए सिर्फ इतना ही कि "क्रोध की प्रतिक्रिया क्रोध नहीं हो सकता।' इसलिए भविष्य में जब भी आप पर कोई क्रोध करे तो आप इस मंत्र को याद करते हुए बिना प्रतिक्रिया व्यक्त किए शांत भाव से सुनते रहें। अंतिम परिणाम वही होंगे जो यधिष्ठिर के साथ हुए।

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