Wednesday, August 17, 2016

मौन से जानो तुम हो कौन


     एक बार एक मछलीमार अपना काँटा डाले तालाब के किनारे बैठा था। काफी समय बाद भी कोई मछली उसके काँटे में नहीं फँसी थी। उसने सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैने काँटा गलत जगह डाला हो और यहाँ कोई मछली ही न हो। उसने तालाब में झाँका तो देखा कि उसके काँटे के आसपास बहुत-सी मछलियाँ थीं। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी सारी मछलियाँ होने के बाद भी कोई मछली फँसी क्यों नहीं जबकि काँटे में दाना भी लगा है। क्या कारण हो सकता है?
     वह ऐसा सोच ही रहा था कि एक राहगीर ने उससे कहा-लगता है भैया यहाँ पर मछली मारने बहुत दिनों बाद आए हो। इस तालाब की मछलियाँ अब काँटे में नहीं फँसती। इस पर उसने हैरत से पूछा- क्यों, ऐसा क्या हुआ है यहाँ? राहगीर बोला- पिछले दिनों तालाब के किनारे एक बहुत बड़े संत आकर ठहरे थे। उन्होने यहां "मौन की महत्ता' पर प्रवचन दिए थे। उनकी वाणी में इतना तेज़ था कि जब वे प्रवचन देते तो सारी मछलियाँ बड़े ध्यान से सुनतीं। यह उनके प्रवचनों का ही असर है कि उसके बाद जब भी कोई इन्हें फँसाने के लिए काँटा डालकर बैठता है तो ये "मौन' धारण कर लेती हैं। जब मछली मुँह खोलेगी ही नहीं तो काँटे में फँसेगी कैसे? इसलिए बेहतर यहीं है कि आप कहीं और जाकर काँटा डालो। उसकी बात मछलीमार की समझ में आ गई और वह वहां से चला गया।
     कितनी सही बात है यह, जब मुँह खोलोगे ही नहीं तो फँसोगे कैसे? यह बात मछलियों की तरह उन व्यक्तियों को भी समझ लेनी चाहिए जो अपनी बकबक करने की आदत के चलते स्थान और समय का ध्यान रखे बिना अपना मुँह खोलकर मुसीबत में फँस जाते हैं। गलाकाट प्रतियोगिता के इस युग में इस बात का महत्व उस समय और बढ़ जाता है जब न जाने कौन अपना काँटा डाले आपको फँसाने के चक्कर में हो। जैसे ही आपने मुँह खोला, आप फँसे।
     ऐसी स्थितियों से बचने के लिए ज़रूरी है कि हम मौन का अभ्यास करें। धीरे-धीरे अभ्यास से हम सीख जाएंगे कि कहां बोला जाए, कहाँ नहीं। इसके अभ्यास से ही कई बार कम योग्य लोग अपने से अधिक योग्य लोगों की तुलना में उच्च पदों पर होते हैं और योग्य व्यक्ति अपनी सारी शक्ति उनकी आलोचना करने में ही खर्च करते रहते हैं। यानी कह सकते हैं कि योग्य और सफल बनना है तो "मौन' की साधना करो। और इस साधना की शुरुआत के लिए आज से बेहतर दिन क्या होगा। हमें कभी कभी मौन भी रहना चाहिए। हम आपस में कटु की जगह मीठे वचन बोलें। अब यह तो मानी हुई बात है कि किसी की बुराई करना हो तो कोई भी व्यक्ति घंटों बोल सकता है लेकिन प्रशंसा के लिए उसे अधिक शब्द ही नहीं मिलते और वह न चाहते हुए भी मौन हो जाता है।
     इसके साथ ही अमावस्या प्रतीक है विपत्तियों व मुसीबतों रूपी अँधकार का। यानी जब आप मुसीबतों से घिरे हों तो मौन रहने में ही भलाई, क्योंकि बोलने से ऊर्जा का क्षय होता है। ऐसे समय में मौन रहकर आप अपनी ऊर्जा की बैटरी को रीचार्ज कर सकते हैं और संचित ऊर्जा के ज़रिये मसीबतों का सामना आसानी से किया जा सकता है।
     ये तो हुई मौन से जुड़ी हुई बाहरी बातें। मौन का संबंध आपके भीतर से भी है। हम अकसर कहते हैं कि अपने गुण, अपनी क्षमता और प्रतिभा को पहचानो। अपने अंदर छुपी संभावानओं को जानो। यदि हम यह सब जानना-पहचानना चाहते हैं तो इस प्रक्रिया की पहली सीढ़ी है मौन। मौन रहकर ही हम जान सकते हैं हम कौन और क्या हैं।
     मौन रहकर ही हम अपनी सोच का दायरा बढ़ा सकते हैं। यही आपको पहुँचाता है आपके भीतर के कल्पवृक्ष तक जहां बैठकर आप अपनी मनोकामनाओं को पूरा कर सकते हैं। इसीलिए कुछ लोग मौन को रहस्यमयी कहते हैं। उनका मानना है कि यह अपने अंदर बहुत से रहस्य छुपाए रहता है। हालाँकि हमारा मानना है कि यह रहस्य छुपाता नहीं बल्कि उजागर करता है आपके अपने अंदर छुपे रहस्यों को। कौन है जो इन्हें जानना नहीं चाहेगा। तो जानो। कैसे? मौन रहकर। क्या? पूछते हो कि मौन कैसे रखें? इसमें क्या दिक्कत है बस हो जाओ मौन। मौन होने की कोई विशेष विधि थोड़े ही है। मौन होकर देखो-सुनो अपने आसपास की घटनाओं को, लेकिन कोई प्रतिक्रिया न हो। यदि एकांत में बैठे हों तो ज्यादा श्रेष्ठ स्थिति है। इस तरह अभ्यास करो "मौन' का। पहले कम समय करो, धीरे-धीरे बढ़ाते जाओ। कुछ समय बाद आपको अपने सभी प्रश्नों के उत्तर मिलने लगेंगे।
     इस तरह "मौन' पर बोलने के लिए बहुत कुछ है। यह गंभीर विषय है और सभी तालों की चाबी भी। अब इस चाबी से आप अपने मन के कितने दरवाज़े खोलते हैं, यह आप पर निर्भर है। फिलहाल तो हम आपसे यहीं आग्रह कर सकते हैं कि ज्यादा न हो सके तो कम से कम आज के दिन कुछ समय के लिए मौन धारण कर इसकी महत्ता को जानें।

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