Monday, August 1, 2016

बोलें ऐसा जो समझ में आए


     बृहदारण्यक उपनिषद के पंचम अध्याय की एक कथा है। एक बार देवता, मनुष्य और असुर मिलकर प्रजापति के पास पहुँचे। उन्होने अपने कल्याण के लिए प्रजापति से उपदेश देने का आग्रह किया। उनके आग्रह को प्रजापति ने स्वीकार कर लिया, लेकिन उन्होने सभी से पहले ब्राहृचर्य व्रत का पालन करने को कहा। निश्चित अवधि तक इस व्रत का पालन पूरी लगन और तपस्या से करने के बाद वे प्रजापति के पास पहुँचे। उन्हें देखकर प्रजापति ने कहा कि अब तुम सभी मेरे उपदेशों सो सुनने के योग्य हो गए हो। उसके बाद उन्होने सबसे पहले देवताओं को बुलाया। जब देवता उनके पास आ गए तो प्रजापति ने तेज़ स्वर में उनसे "द' अक्षर कहा और मौन हो गए। सभी देवता "द' का अर्थ सोचने लगे। कुछ क्षण बाद उन्होने देवताओ से पूछा कि क्या आप समझ गए कि "द' से मेरा आशय क्या है? देवता बोले- जी प्रजापति! "द' अर्थात दमन करो।' आपने हमें अपनी इंद्रियों का दमन करने का आदेश दिया  है। प्रजापति बोले- बिल्कुल ठीक। तुमने इसका सही अर्थ समझा है। तुम्हें यही करना चाहिए, इससे तुम्हारा कल्याण  होगा। इसके बाद मनुष्य आगे आए। प्रजापति उन्हें भी "द' अक्षर कहकर मौन हो गए। अब सभी मनुष्य उस पर विचार करने लगे। प्रजापति ने कुछ समय बाद उनसे पूछा-तुम समझे या नहीं कि "द' से मेरा आशय क्या है? मनुष्य बोले- जी प्रजापति! आप हमें "दान' करने का आदेश दे रहे हैं। प्रजापति ने मनुष्यों से कहा- तुम भी ठीक समझे। जाओ और खूब दान करो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा। अंत में असुर आगे आए। प्रजापति ने उनसे पूछा- क्या तुम मेरा उपदेश सुनने के लिए तैयार हो? असुर बोले- जी हाँ, प्रजापति! हम तैयार हैं। प्रजापति बोले- तो सुनो! उसके बाद प्रजापति ने उनसे भी "द' अक्षर कहा, और एक बार वे फिर से मौन हो गए। असुर भी "द' अक्षर के पीछे छिपे आदेश के बारे में विचार करने लगे। कुछ समय बाद प्रजापति ने उनसे पूछा-असुरों! तुम क्या समझे "द' अक्षर से मेरा आशय? असुर बोले-प्रजापति! आपने हमें 'दया' करने का आदेश दिया है। आपने कहा है कि हम सभी पर दया करें। प्रजापति बोले-तुम भी ठीक समझे। तुम्हारे लिए "द' से मेरा यही आशय था। जाओ और सभी पर दया करो। इसमें ही तुम्हारा कल्याण निहित है। उसके बाद सभी प्रजापति का अभिवादन कर वहाँ से चले गए।
     इस कथा की पृष्ठभूमि कुछ इस तरह थी कि उपनिषद काल में एक समय ऐसा आया कि सभी देवता विलासी हो गए। वे अपनी इंद्रियों के वशीभूत होकर अपने कर्तव्यों को भूल गए थे। सिर्फ भोगों में लिप्त होकर विलासितापूर्ण जीवन जीना ही उनका उद्देश्य बन गया था। उनकी यह प्रवृत्ति कम होने की जगह दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी। मनुष्यों का आचरण भी संग्रह प्रधान हो गया था। वे सभी वस्तुओं व धन संपत्ति के संग्रह में लगे थे। दान-दक्षिणा से तो जैसे उनका कोई लेना-देना ही नहीं रह गया था। जिससे समाज में आर्थिक विषमता बढ़ती जा रही थी। दूसरी ओर असुरों ने चारों ओर हिंसा और अत्याचार का वातावरण निर्मित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी। उन्हें किसी पर भी दया नहीं आती थी। वे केवल मारकाट में ही विश्वास रखते थे। प्रजापति ने उन सभी की मनोवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए ही एक ही अक्षर "द' के माध्मय से उपदेश दे दिया और तीनों ने अपने आचरणों और कर्मों के अनुसार उसका आशय अपने-अपने लिए सही अर्थो में ग्रहण किया। इसे कहते हैं "संचार योग्यता' यानि "कम्युनिकेशन स्किल।'
     यह कथा कई तरह से सीख देने वाली है, लेकिन सबसे प्रमुख सीख जो इससे मिलती है, वह यही कि यदि आप में योग्यता है तो आप कितने संक्षेप में अपनी बात सामने वाले को समझा सकते हैं। यहाँ तक कि केवल एक शब्द से ही दूसरे व्यक्ति को अपनी बात समझाई जा सकती है। कह सकते हैं कि संचार में शब्द महत्वपूर्ण नहीं होते। ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात है कि आप क्या कह रहे हैं और किससे कह रहे हैं। संचार की पूर्णता इस बात में है कि वक्ता द्वारा कही गई बात श्रोता द्वारा उन्हीं संदर्भों में ग्रहण कर ली जाए जिन संदर्भों में वक्ता ने कही है, यानी वक्ता के कहने का आशय श्रोता को सही-सही समझ में आ जाए। केवल भारी-भरकम  शब्दों का प्रयोग कर अपनी भाषायी योग्यता का प्रदर्शन करने से ही संचार पूरा नहीं होता। यदि आप जो कह-लिख रहे हैं, वह सामने वाले की समझ में ही नहीं आ रहा तो ऐसी बातों का क्या मतलब? आप पांडित्य झाड़ते रहें और सामने वाला उसे ग्रहण ही न कर पाए। इसलिए जब आप कोई भी बात सामने वाले की मनोस्थिति और स्तर देखते हुए कहेंगे, तो वह आसानी से उसकी समझ में आ जाएगी। संचार क्रांति के इस दौर में जबकि किसी भी व्यक्ति या व्यवसाय की सफलता में संचार का योगदान महत्वपूर्ण हो गया है, ऐसे में इस बात को ध्यान में रखना और भी ज़रूरी हो जाता है। आज के समय में जबकि आपको अपने कार्य के सिलसिले में विस्तृत दायरे में संचार करना पड़ता है। यानी देश-विदेश में रहने वाले विभिन्न संस्कृति वाले लोगों से कई स्तरों पर वार्तालाप करना होता है तो ऐसी स्थिति में सफलता दिलाने में संचार योग्यता की निर्णायक भूमिका होती है। इसलिए "भाषायी योग्यता' से ज्यादा ज़रूरी है संचार योग्यता।' और इसके साथ साथ मनुष्य को दान करते रहना चाहिए।
पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम।।
दोनों हाथ उलीचिए यही सयानों काम।

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