Wednesday, August 31, 2016

आभार मानने में कैसा भार?


     महान विचारक शेख सादी साहिब एक दिन मस्जिद में नमाज़ पढ़ने गए हुए थे। जब वे मस्जिद पहुँचे तो उन्होने देखा कि एक दौलतमंद अमीर भी वहाँ नमाज़ पढ़ने के लिए आया हुआ है। उस अमीर ने अपने पैरों में रत्नजड़ित जूतियाँ पहनी हुई थी। शेख सादी को उसके बारे में जानने की इच्छा हुई। उन्हें वहाँ आए लोगों से पता चला कि वह अमीर साल में एक बार नमाज़ पढ़ने के लिए आता है। अमीर के बारे में यह जानकर शेख सादी ने आसमान की ओर देखा और मन ही मन कहा-वाह रे अल्लाह! तेरा यह कैसा न्याय है? मैं पाँचों वक्त की नमाज़ पढ़ता हूँ और रोज़ तेरी चौखट पर आता हूँ। इसके बाद भी मेरे पास ऐसी फटी-पुरानी जूतियाँ! और वो अमीर साल में एक बार तुझे याद करता है और उसके पास रत्नजड़ित जूतियाँ! यह तो अन्याय है। शेख सादी जब मन ही मन अल्लाह से शिकायत कर रहे थे तभी एक अपाहिज वहाँ आया। उसके दोनों पैर नहीं थे। उसे देखकर शेख सादी को याद आया कि वह भी रोज़ उन्हीं की तरह मस्जिद आता है और नमाज भी अदा करता है। उसे देखते ही शेख सादी को अपनी गलती का अहसास हुआ और वे तुरंत आसमान की ओर देखकर अल्लाह का शुक्रिया अदा करते हुए बोले- अल्लाह! तेरी इनायतों का शुक्रिया। तूने मूझे दो सही-सलामत पाँव तो बख्शे हैं। मैं तेरे न्याय पर बेकार ही शक कर रहा था।
     यह तो थे शेख सादी जिन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होने तुरंत शुक्रिया अदा कर उसे सुधार लिया। लेकिन उनका क्या जो रोज़ ऐसी गलती करते हैं और पता लगने पर भी उसे सुधारने का प्रयास नहीं करते। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे मतलबी होते हैं। एक मतलबी इंसान सिर्फ उन्हीं चीज़ों के बारे में सोचता रहता है जो उसके पास नहीं है। उसे इस बात का भान ही नहीं रहता कि ऐसा करते समय वह हर उस चीज़ की उपेक्षा कर रहा है जो उसके पास है। यह बात वस्तुओं के साथ ही रिश्तों पर भी लागू की जा सकती है। यानी कि जो हमारे पास है, उसकी जगह जो नहीं है, उसकी चिंता में हम दुबले हो रहे हैं। और दुबले हों भी क्यों न, जब हम न जाने कितने ऐसे आभारों का भार लेकर घूम रहे हैं। जिन्हें हमने उन तक पहुँचाया ही नहीं होता जो उनके हकदार थे। यानी जब हमारा काम निकल गया तो हम "मतलबी यार किसके, खाया-पिया और खिसके' वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए बिना आभार दिए ही वापिस आ गए। अब इन भारों को लेकर घूमोगे तो उसके भार से दुबले तो होंगे ही ना। वैसे भी आभार व्यक्त करने में कैसा भार। जब हम दूसरों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं तो जीवन में आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक परिवर्तन होते हैं। कृतज्ञता का भाव हमारे अंदर सह्मदयता की भावना को जाग्रत करता है, जिसके माध्यम से हम किसी व्यक्ति द्वारा निःस्वार्थ भाव से की गई सहायता के लिए उसका आभार मानते हैं। इसे हम व्यक्त करते हैं सिर्फ एक शब्द "धन्यवाद' के द्वारा। इसे आजमाने के लिए चलिए कि प्रयोग करके देखते हैं। जब भी आपको थोड़ी- सी फुरसत मिले, आप अपने जीवन के अच्छे व यादगार अनुभवों की एक सूची बनाएँ। इस सूची को ऐसी जगह रखें जहाँ से वह रोज पढ़ने में आए। इसके बाद एक महीने तक उन अच्छे अनुभवों के लिए ईश्वर व उन लोगों के प्रति मन ही मन आभार व्यक्त करें, जिन्होंने उन पलों को यादगार बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया हो। हाँ, शर्त यही है कि आभार दिल से व्यक्त किया जाना चाहिए। एक महीने बाद निश्चित ही आप जीवन में सकारात्मक परिवर्तनों का अनुभव करेंगे।
     यदि आप ऐसा करते हैं तो इससे आपको एक लाभ और होगा। जब आप ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करेंगे तो निश्चित इससे वह प्रसन्न होगा, क्योंकि कृतज्ञ और प्रसन्न मन से की गई प्रार्थना ही ईश्वर को सबसे अधिक प्रिय है। वह प्रसन्न होकर आपकी और भी मनोकामनाओं को पूरा करेगा।
     आप कहेंगे कि इस बात पर विश्वास नहीं होता। तो विश्वास करने के लिए याद करें उस पल को, जब आपने किसी व्यक्ति द्वारा की गई किसी भी भलाई या सहायता पर उसे धन्यवाद दिया होगा, तो उसके चेहरे पर क्या भाव था? निश्चित ही प्रसन्नता का रहा होगा और प्रसन्न होकर उसने भविष्य में भी आपकी उसी प्रकार सहायता करने की इच्छा व्यक्त की होगी। दूसरों के क्यों, खुद के बारे में ही सोचें। जब आप किसी की दिल से मदद करते हैं और वह उसके लिए आपके प्रति आभार व्यक्त करता है तो आपको कैसा लगता है? निश्चित ही अच्छा लगता है और आप आगे भी उसकी सहायता के लिए तत्पर रहते हैं। और यदि वही व्यक्ति आपके द्वारा की गई भलाई के लिए आपका आभार न माने तो क्या होता है? आपको पता है कि ऐसा होने पर आपके दिल पर क्या गुजरती है। जब हम लोग ऐसा सोच और कर सकते हैं तो सोचिए कि ईश्वर क्यों नहीं करेगा इसलिए हमें हर उस व्यक्ति का, जिसने हमारी किसी भी रूप में सहायता की है, आभार अवश्य मानना चाहिए। उसे दिल से धन्यवाद अवश्य देना चाहिए। ऐसा करके हम कृतज्ञता की भावना में समाहित जादूई शक्ति के द्वारा लोगों को अपना बनाते चले जाएंगे, साथ ही बिना किसी रूकावट के प्रगति भी करते जाएंगे।

Sunday, August 28, 2016

सलाह दो उन्हें जो परवाह करें


     बहुत समय पहले की बात है। एक पर्वत पर बहुत से बंदर रहते थे। एक बार शाम के समय पर्वत पर शीतलहर चलने लगी। इससे वहाँ का तापमान अचानक गिर गया। ठंड से दाँत किटकिटाते बंदर इससे बचने का उपाय खोजने लगे। कुछ बंदर उपाय की खोज में इधर-उधर निकल गए। इस बीच वहाँ रह गए बंदरों में से एक की नज़र उड़ते हुए जुगनू पर पड़ी। वह चिल्लाया-देखो, आग की चिंगारी। मैं भागकर उसे पकड़ता हूं, तुम सब जल्दी से घास-फूस इकट्ठा करो। हम आग जलाकर तापेंगे।
     ऐसा कहकर वह जुगनू की तरफ लपका और उसे पकड़ लिया। वह उसे घास-फूस के ढेर पर रखकर फूंक मारने लगा ताकि आग जल जाए। कुछ कोशिशों के बाद जब वह सफल नहीं हुआ तो बाकी बंदर भी फूँक मारने लगे, लेकिन जुगनू से आग कैसे लगती। एक बंदर बोला-लगता है घास-फूस, पत्तियाँ अभी पूरी तरह सूखी नहीं है, इसीलिए यह आग नहीं पकड़ रहीं। हमें और भी चिंगारियों की आवश्यकता है। कहाँ से लाएँ? वे यह सब बात कर ही रहे थे कि एक बंदर भागता हुआ आया और बोला-देखो मेरे पास अंगारे हैं, मैं इन्हें सँभालकर लाया हूँ। इससे निश्चित ही आग जल जाएगी।
     दरअसल वह सूर्ख लाल रंग के जंगली फलों को अंगारे समझकर गीली पत्तियों में दबाकर ले आया था। सभी बंदर उन फलों को देखकर खुश हो गए और उन्हें भी जुगनू के साथ घास-फूस पर रखकर आग जलाने के लिए फूँक मारने लगे। बंदर जिस पेड़ के नीचे बैठकर यह सब कर रहे थे, उस पेड़ पर एक चिड़िया रहती थी। वह बहुत देर से बंदरों की मूर्खता को देख रही थी। जब उससे रहा नहीं गया तो वह बंदरों को समझाते हुए बोली- यह क्या कर रहे हो? जिसे आप सब चिंगारी और अंगारे समझ रहे हैं, वे दरअसल जुगनू और जंगली फल हैं। इनसे आग नहीं सुलगेगी। बेकार में प्रयत्न करने से अच्छा है कि सामने की गुफा में चले जाओ। ठंड से बच जाओगे।
     लेकिन बंदरों ने उसकी एक न सुनी। अब तो वे और भी जोर-जोर से फूँक मारने लगे। लेकिन चिड़िया ने भी बंदरों को समझाना नहीं छोड़ा। वह बोली-मेरी सुनते क्यों नहीं? ज़रा अक्ल से काम लो। लेकिन बंदर समझने को तैयार नहीं थे। जब चिड़िया ने बोलना बंद नहीं किया तो एक बूढ़े बंदर ने झपट्टा मारकर उसे पकड़ लिया और बोला-बहुत समझदार समझती है अपने आपको। अब तू बताएगी कि हमें क्या करना चाहिए। बड़ी देर से कान खा रही है हमारे। चल भाग यहाँ से। ऐसा कहकर उसने चिड़िया को जोर से ज़मीन पर दे मारा। चिड़िया के प्राण-पखेरू उड़ गए। लेकिन बंदर उसकी परवाह किए बिना दोबारा फूँक मारने में जुट गए।
     यह है मूर्खों को ज्ञान बाँटने का नतीजा! जो आपकी बात को समझने को तैयार ही नहीं, आप उसके पीछे लगेंगे तो यही होगा। मूर्ख को समझाना भी एक मूर्खता ही है। जब आप यह मूर्खता करोगे तो परिणाम भी भुगतोगे ही।
     अब आप कहेंगे कि किसी को जानते-बूझते तो गर्त में गिरते नहीं देखा जा सकता। इंसानियत के नाते कुछ तो फर्ज़ बनता है। तो भई, इंसानियत के नाते समझाओ, सलाह दो। लेकिन ऐसा कितनी बार करोगे? एक या दो बार, बस। इससे ज्यादा तो नहीं। क्योंकि जो आपकी सलाह पर ध्यान देगा, उसे एक या दो बार में ही आपकी बात समझ में आ जाएगी। लेकिन जो समझने को तैयार ही नहीं, उसे क्या समझाना। भैंस के आगे बीन बजाने से कोई लाभ नहीं  होता। इसीलिए कहा गया है 'सीख वाको दीजिए, जाको सीख सुहाय।'
     अकसर देखने में आता है कि जिनको परामर्श की सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है, वे ही अधिकतर इन्हें सबसे कम पसंद करते हैं। ऐसे लोग परामर्श का स्वागत नहीं, तिरस्कार करते हैं। ऐसा करने वालों को इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके आचरण से सलाह देने वाले की भावनाओं को ठेस पहुँच सकती है। इसलिए हम यह नहीं कहेंगे कि सलाह न दें। सलाह अवश्य दें, लेकिन ऐसे लोगों को, जिनको आपकी सलाह की परवाह हो। वरना आप सलाह देते रहेंगे, सामने वाला मानेगा नहीं और आप दिल से लगा लेंगे। यानी गए तो थे दूसरे को समझाने, लेकिन "आ बैल मुझे मार कर बैठ।'
     दूसरी ओर सीख न मानने वालों की बात करें तो ज़रूरी नहीं कि वे मूर्ख ही हों। कई बार तो बुद्धिमान लोग भी सही सलाह मानने से इनकार कर देते हैं। उनका अहं उन्हें रोकता है। ऐसे लोग इस गुमान में रहते हैं कि उन्हें दुनियां में सब कुछ आता है, कोई उन्हें क्या समझाएगा? कौन-सा ऐसा काम है जो वे नहीं कर सकते? कोई उन्हें क्या सिखायेगा? कई बार तो उन्हें अपने अहं का पता तक नहीं चलता। लेकिन आश्चर्य तब होता है जब कुछ लोग जानते-बूझते और अपनी विद्वता की झूठी शान के चलते ऐसा  करते हैं। सिर्फ सलाह की बात नहीं ये लोग तो किसी भी नई बात को स्वीकारने और सीखने के लिए भी तैयार नहीं होते। ऐसे लोग अपनी प्रगति को अपने हाथों से रोकते हैं। यकीन मानिए, ये लोग जल्द ही असफलता के अँधेरों में खो जाते हैं। इसलिए उन्हें यदि वे मानें तो, हमारा एक परामर्श है कि लोगों की सही सलाह की परवाह करो, तभी सफलता की सीढियों पर निर्बाध चढ़ते रह सकते हो, अन्यथा तो आप जानते ही हैं।

Tuesday, August 23, 2016

कमज़ोर पर न चलाएँ जोर


     एक बार जंगल में एक शेर अपना शिकार खा रहा था। कि अचानक उसके मुँह में एक हड्डी फँस गई। शेर ने उसे निकालने की बहुत कोशिश की लेकिन वह सफल नहीं हुआ। अब उसे चिंता सताने लगी। वह सोचने लगा कि यदि हड्डी नहीं निकली तो वह खाएगा कैसे? वह और भी ज़ोर से प्रयास करने लगा, परंतु हड्डी को न निकलना था और न ही वह निकली। इस तरह कई दिन बीत गए। वह कुछ भी खा नहीं पा रहा था। इससे शेर बहुत कमज़ोर हो गया और उसे लगने लगा था कि अब वह कुछ ही दिनों का मेहमान है। कमज़ोरी के कारण वह एक पेड़ के नीचे बेजान-सा पड़ गया। उसी पेड़ पर एक कठफोड़वा रहता था। वह कई दिनों से शेर को देख रहा था। उसे यह पहेली समझ में नहीं आ रही थी कि शेर मुँह खोले क्यों लेटा रहता है और शिकार भी नहीं करता।
     एक दिन कठफोड़वे ने शेर से पूछ ही लिया-आखिर बात क्या है? आप इस तरह क्योंं लेटे रहते हैं? शेर ने उसकी बात का जवाब देने की बजाय उसे इशारे से अपने पास बुलाया और मुँह में फँसी हड्डी दिखाई। हड्डी को देखते ही कठफोड़वे को वस्तुस्थिति समझ में आ गई। वह शेर से बोला-अच्छा! तो यह बात है। आप यदि चाहें तो मैं आपके मुँह से यह हड्डी निकाल सकता हूँ। लेकिन इसके लिए आपको मुझसे एक वादा करना होगा कि अपना शिकार खाने से पहले कुछ हिस्सा मुझे देंगे। यदि आप तैयार हैं तो कहें।
     मरता क्या न करता। शेर ने सिर हिलाकर तुरंत हामी भर दी। कठफोड़वा उड़कर शेर के मुँह में जा बैठा और कई कोशिशों के बाद वह हड्डी निकालने में कामयाब हो गया। जैसे ही हड्डी निकली, वह तुरंत उड़कर पेड़ पर जा बैठा और शेर से बोला-मैने अपना काम कर दिया है, अब आप अपना वादा याद रखना। शेर उसकी बात को अनसुना कर शिकार करने निकल पड़ा।
    कुछ घंटों बाद शेर के हाथ एक शिकार लगा। वह अपना वादा भूलकर उसे खाने लगा। इतने में कठफोड़वा उड़ता हुआ वहीं से निकला। उसकी नज़र शेर पर पड़ी। वह उसके पास आया और बोला-हे मित्र! ठहरो! क्या आप अपना दिया हुआ वादा भूल गए। कहाँ है मेरा हिस्सा? शेर ने कठफोड़वे की बात सुनकर उसकी ओर देखा और अनजान सा बनकर बोला-तुम कौन हो? मैं तुम्हें नहीं जानता। मैं तुम्हें अपने शिकार का हिस्सा क्यों दूँ?
     उसकी बात सुनकर कठफोड़वे को झटका लगा। वह शेर को याद दिलाने की कोशिश करने लगा। उसकी बात सुनकर शेर ने उसे हिकारत भरी नज़र से देखा और हँसते हुए बोला-तुम जानते हो मैं एक ताकतवर मांसाहारी जानवर हूँ। जब तुम मेरे मुँह में थे, तब मैं तुम्हें आसानी से खा सकता था, लेकिन मैने ऐसा नहीं किया। तुम्हें मेरा अहसान मानना चाहिए। अब चलो भागों यहाँ से, वरना---।
     कठफोड़वा बेचारा क्या करता। वह उदास होकर वहां से उड़कर एक पेड़ पर जा बैठा। वह सोच रहा था कि मैं कमज़ोर हूँ इसलिए यह मेरा फायदा उठाकर अपना वादा भूल गया, लेकिन मैं भी कम नहीं हूँ। मैं इसे सबक सिखाकर ही रहूँगा। कुछ समय बाद जब शेर अपना शिकार खाने के बाद आँख बंद कर सुस्ताने लगा तो कठफोड़वा उड़कर उसके पास गया। उसने अपनी लंबी नुकीली चोंच मारकर शेर की एक आँख फोड़ दी। शेर दर्द से कराह उठा। वह बोला-तुम इतने कठोर कैसे हो सकते हो? तुमने मेरी आँख फोड़ दी। वह बोला महोदय! आप जानते ही हैं कि मेरी चोंच बहुत नुकीली है। मैं आसानी से आपकी दूसरी आँख भी फोड़कर आपको अँधा कर सकता था, लेकिन मैने ऐसा नहीं किया। आपको मेरा अहसान मानना चहिए। अब चलो भागो यहाँ से, वरना---।
     यह होता है किसी को भी अपने से कमज़ोर समझने का परिणाम। ताकत के मद में फँसे हम कमज़ोर पर अपना ज़ोर दिखाते चले जाते हैं और सोचते हैं कि वह हमारा क्या बिगाड़ लेगा? हम भूल जाते हैं कि समय पड़ने पर एक छोटी-सी चींटी भी हाथी को मार सकती है। इसी तरह जिस दिन कमज़ोर का जोर चलता है तो ताकतवर का भी वही होता है जो शेर का हुआ।
     यहाँ कमज़ोरी या ताकत का आशय सिर्फ शारीरिक क्षमता से नहीं है। कोई भी कमज़ोर या ताकतवर किन्हीं भी अर्थों में हो सकता है, जैसे कि व्यावसायिक, प्रशासनिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि स्तरों पर। यदि हम दफ्तर की बात करें तो हम देखते हैं कि कुछ अधिकारी अपने सहकर्मियों की कमज़ोरी का फायदा उठाते हैं। अपना काम निकलवाने के लिए वे उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देते हैं और समय आने पर शेर की तरह पलट जाते हैं। यहाँ हम ऐसे अधिकारियों से कहना चाहेंगे कि आपका तरीका गलत है। इससे आप उनकी नज़रों में गिर जाते हैं। हो सकता है कोई कर्मचारी आपके सामने कुछ कह न पाए, लेकिन उसके मन में यह बात बैठ जाती है। जब कभी ऐसा अवसर आता है कि आपको उसके समर्थन की आवश्यकता होती है तो वह आपका साथ नहीं देता और आपको अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ता है।
     इसलिए हमें किसी भी व्यक्ति को कमज़ोर नहीं समझना चाहिए और न ही किसी की मज़बूरी का फायदा उठाना चाहिए। साथ ही अपनी कही हुई बात या वादे को अवश्य पूरा करना चाहिए। ऐसा करके आप अपने सहकर्मियों के प्रिय बन जाते हैं। दूसरी ओर मौका आने पर वे अपनी पूरी क्षमता से आपका साथ देने के लिए भी तैयार रहते हैं।

Friday, August 19, 2016

संस्था की छवि से है आपकी छवि


     स्वामी रामतीर्थ के जीवन का एक प्रसंग है। एक बार स्वामी जी जापान की यात्रा पर थे। वहाँ विभिन्न शहरों में उनके कई कार्यक्रम थे। एक बार वे किसी कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए ट्रेन में जा रहे थे। इस लंबी यात्रा के दौरान स्वामी जी की इच्छा फल खाने की हुई। जब गाड़ी अगले स्टेशन पर रूकी तो वहाँ अच्छे फल नहीं मिले। इस पर स्वामी जी ने स्वाभाविक-सी प्रतिक्रिया कर दी कि कि "लगता है कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।' उनकी यह बात एक सहयात्री जापानी युवक ने सुन ली, लेकिन उसने कहा कुछ नहीं। जब अगला स्टेशन आया तो वह फुर्ती से उतरा और कहीं से एक पैकेट में ताज़े-ताज़े मीठे फल ले आया।
     स्वामी जी ने उसे धन्यवाद दिया और कीमत लेने का आग्रह किया। लेकिन उस युवक ने मना कर दिया। जब स्वामी जी ने कीमत लेने पर ज्यादा ज़ोर दिया तो वह बोला कि मुझे कीमत नहीं चाहिए। यदि आप देना ही चाहते हैं तो बस कीमत के रूप में इतना आश्वासन दे दें, कि जब भी आप अपने देश जाएँ, तो वहां किसी से यह मत कहिएगा कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते। इससे हमारे देश की छवि खराब हो सकती है। उसकी भावना से स्वामी जी गद्गद् हो गए। बाद में स्वामी जी ने इस घटना का उल्लेख तो किया लेकिन दूसरे संदर्भों में।
     इसे कहते हैं अपने देश के प्रति सच्चा लगाव। यही लगाव है जिसकी बदौलत
आज जापान जैसा एक छोटा-सा देश आर्थिक क्षेत्र में विश्व की एक शक्ति है। हमारे यहाँ भी इस तरह की भावना के लोग हैं, लेकिन केवल मुट्ठी भर। सोचें कि यदि यह भावना अधिकतर लोगों में आ जाए तो यह देश कहाँ पहुंच सकता है।
     लेकिन अधिकतर हमारे यहाँ जापान से उल्टा होता है। जैसे कि यदि यही घटना किसी विदेशी संत के साथ भारत में घटी होती तो कोई युवक उन्हें अच्छे फल तो नहीं देता, बल्कि यहाँ और क्या क्या अच्छा नहीं मिलता है, इस बात की जानकारी ज़रूर दे देता। चलो, देश की बात छोड़ो। कितने ही लोग आपको ऐसे मिल जाएँगे जो आपके सामने अपनी कंपनी या संस्था की ही निंदा करने लगें जहाँ से उनका कैरियर जुड़ा हुआ है। निंदा करते समय उन्हें इतना भी ध्यान नहीं रहता है कि ऐसा करके वे न केवल अपनी संस्था की छवि को नुकसान पहुँचा रहे हैं, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से वे अपनी छवि को भी बिगाड़ते हैं क्योंकि संस्था की छवि से आपकी छवि भी जुड़ी होती है। यानी वे इस लोकोक्ति को चरितार्थ कर रहे होते हैं कि "जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं।' यदि कोई कहता है कि "मेरी कंपनी बहुत ही घटिया है, वहां का प्रबंधन लोगों का बिल्कुल ध्यान नहीं रखता।' इस पर सुनने वाले के मन में पहला विचार यही आएगा यदि कंपनी घटिया है तो वह दूसरी कंपनी में क्यों नहीं चला जाता? कहीं न कहीं खुद में भी कोई कमी होगी तभी वहां टिका हुआ है।

Wednesday, August 17, 2016

मौन से जानो तुम हो कौन


     एक बार एक मछलीमार अपना काँटा डाले तालाब के किनारे बैठा था। काफी समय बाद भी कोई मछली उसके काँटे में नहीं फँसी थी। उसने सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैने काँटा गलत जगह डाला हो और यहाँ कोई मछली ही न हो। उसने तालाब में झाँका तो देखा कि उसके काँटे के आसपास बहुत-सी मछलियाँ थीं। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी सारी मछलियाँ होने के बाद भी कोई मछली फँसी क्यों नहीं जबकि काँटे में दाना भी लगा है। क्या कारण हो सकता है?
     वह ऐसा सोच ही रहा था कि एक राहगीर ने उससे कहा-लगता है भैया यहाँ पर मछली मारने बहुत दिनों बाद आए हो। इस तालाब की मछलियाँ अब काँटे में नहीं फँसती। इस पर उसने हैरत से पूछा- क्यों, ऐसा क्या हुआ है यहाँ? राहगीर बोला- पिछले दिनों तालाब के किनारे एक बहुत बड़े संत आकर ठहरे थे। उन्होने यहां "मौन की महत्ता' पर प्रवचन दिए थे। उनकी वाणी में इतना तेज़ था कि जब वे प्रवचन देते तो सारी मछलियाँ बड़े ध्यान से सुनतीं। यह उनके प्रवचनों का ही असर है कि उसके बाद जब भी कोई इन्हें फँसाने के लिए काँटा डालकर बैठता है तो ये "मौन' धारण कर लेती हैं। जब मछली मुँह खोलेगी ही नहीं तो काँटे में फँसेगी कैसे? इसलिए बेहतर यहीं है कि आप कहीं और जाकर काँटा डालो। उसकी बात मछलीमार की समझ में आ गई और वह वहां से चला गया।
     कितनी सही बात है यह, जब मुँह खोलोगे ही नहीं तो फँसोगे कैसे? यह बात मछलियों की तरह उन व्यक्तियों को भी समझ लेनी चाहिए जो अपनी बकबक करने की आदत के चलते स्थान और समय का ध्यान रखे बिना अपना मुँह खोलकर मुसीबत में फँस जाते हैं। गलाकाट प्रतियोगिता के इस युग में इस बात का महत्व उस समय और बढ़ जाता है जब न जाने कौन अपना काँटा डाले आपको फँसाने के चक्कर में हो। जैसे ही आपने मुँह खोला, आप फँसे।
     ऐसी स्थितियों से बचने के लिए ज़रूरी है कि हम मौन का अभ्यास करें। धीरे-धीरे अभ्यास से हम सीख जाएंगे कि कहां बोला जाए, कहाँ नहीं। इसके अभ्यास से ही कई बार कम योग्य लोग अपने से अधिक योग्य लोगों की तुलना में उच्च पदों पर होते हैं और योग्य व्यक्ति अपनी सारी शक्ति उनकी आलोचना करने में ही खर्च करते रहते हैं। यानी कह सकते हैं कि योग्य और सफल बनना है तो "मौन' की साधना करो। और इस साधना की शुरुआत के लिए आज से बेहतर दिन क्या होगा। हमें कभी कभी मौन भी रहना चाहिए। हम आपस में कटु की जगह मीठे वचन बोलें। अब यह तो मानी हुई बात है कि किसी की बुराई करना हो तो कोई भी व्यक्ति घंटों बोल सकता है लेकिन प्रशंसा के लिए उसे अधिक शब्द ही नहीं मिलते और वह न चाहते हुए भी मौन हो जाता है।
     इसके साथ ही अमावस्या प्रतीक है विपत्तियों व मुसीबतों रूपी अँधकार का। यानी जब आप मुसीबतों से घिरे हों तो मौन रहने में ही भलाई, क्योंकि बोलने से ऊर्जा का क्षय होता है। ऐसे समय में मौन रहकर आप अपनी ऊर्जा की बैटरी को रीचार्ज कर सकते हैं और संचित ऊर्जा के ज़रिये मसीबतों का सामना आसानी से किया जा सकता है।
     ये तो हुई मौन से जुड़ी हुई बाहरी बातें। मौन का संबंध आपके भीतर से भी है। हम अकसर कहते हैं कि अपने गुण, अपनी क्षमता और प्रतिभा को पहचानो। अपने अंदर छुपी संभावानओं को जानो। यदि हम यह सब जानना-पहचानना चाहते हैं तो इस प्रक्रिया की पहली सीढ़ी है मौन। मौन रहकर ही हम जान सकते हैं हम कौन और क्या हैं।
     मौन रहकर ही हम अपनी सोच का दायरा बढ़ा सकते हैं। यही आपको पहुँचाता है आपके भीतर के कल्पवृक्ष तक जहां बैठकर आप अपनी मनोकामनाओं को पूरा कर सकते हैं। इसीलिए कुछ लोग मौन को रहस्यमयी कहते हैं। उनका मानना है कि यह अपने अंदर बहुत से रहस्य छुपाए रहता है। हालाँकि हमारा मानना है कि यह रहस्य छुपाता नहीं बल्कि उजागर करता है आपके अपने अंदर छुपे रहस्यों को। कौन है जो इन्हें जानना नहीं चाहेगा। तो जानो। कैसे? मौन रहकर। क्या? पूछते हो कि मौन कैसे रखें? इसमें क्या दिक्कत है बस हो जाओ मौन। मौन होने की कोई विशेष विधि थोड़े ही है। मौन होकर देखो-सुनो अपने आसपास की घटनाओं को, लेकिन कोई प्रतिक्रिया न हो। यदि एकांत में बैठे हों तो ज्यादा श्रेष्ठ स्थिति है। इस तरह अभ्यास करो "मौन' का। पहले कम समय करो, धीरे-धीरे बढ़ाते जाओ। कुछ समय बाद आपको अपने सभी प्रश्नों के उत्तर मिलने लगेंगे।
     इस तरह "मौन' पर बोलने के लिए बहुत कुछ है। यह गंभीर विषय है और सभी तालों की चाबी भी। अब इस चाबी से आप अपने मन के कितने दरवाज़े खोलते हैं, यह आप पर निर्भर है। फिलहाल तो हम आपसे यहीं आग्रह कर सकते हैं कि ज्यादा न हो सके तो कम से कम आज के दिन कुछ समय के लिए मौन धारण कर इसकी महत्ता को जानें।

Friday, August 12, 2016

क्षमता के अनुरूप ही हो लक्ष्य


     एक बार एक शेरनी ने दो बच्चों को जन्म दिया। वह बच्चों की देखभाल करती और शेर जंगल में जाकर शिकार करके लाता। एक दिन बहुत कोशिशों के बाद भी उसे कोई शिकार नहीं मिला। जब वह गुफा की ओर लौट रहा था तो उसकी नज़र सियार के एक नवजात बच्चे पर पड़ी। उसने सोचा चलो आज इसी से काम चलाएँगे। ऐसा सोचकर उसने अपना पंजा सियार के बच्चे की ओर बढ़ाया लेकिन उसकी मासूमियत पर उसे दया आ गई। वह सोचने लगा कि इसे मैं तो मार नहीं सकता। मैं इसे घर ले जाता हूँ और इसके बाद शेरनी की जो इच्छा हो, वो कर लेगी। ऐसा विचार कर वह बच्चे को सावधानी पूर्वक अपने मुँह में दबाकर गुफा में ले गया। शेरनी ने जब पूछा कि आज क्या लाए हो तो शेर बोला-आज मुझे कोई शिकार तो नहीं मिला, लेकिन यह बच्चा मिला है। मेरी तो इसे मारने की हिम्मत नहीं हुई, लेकिन यदि तुम चाहो तो तुम इसे मारकर खा सकती हो। शेरनी बोली- जब तुम्हारी हिम्मत नहीं हुई तो मेरी कैसे होगी? आखिर मैं भी एक माँ हूं। मैं इसे पालूंगी। आज से मेरे दो नहीं, तीन बच्चे हैं।
     इसके बाद तीनों बच्चे साथ-साथ बड़े होने लगे। एक दिन जब वे अपनी माँद के बाहर धमाचौकड़ी मचा रहे थे कि एक हाथी उधर से गुज़रा। उसे देखकर एक शेर शावक बोला- यह कौन-सा जानवर है? इसकी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की? चलो भाइयों, उसे सबक सिखाएँ। ऐसा कहकर जैसे ही वे आगे बढ़े तो सियार का बच्चा बोला-ठहरो! वह कितना बड़ा है। हम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। बेहतर यही है कि हम माँद में चलकर अपनी जान बचाएँ। शेर शावक उसकी बात सुनकर हँसने लगे। लेकिन वह इसे नज़र अंदाज़ कर दुम दबाकर माँद में भाग गया। उसके पीछे-पीछे उसके भाई भी आ गए, लेकिन निडरतापूर्वक आराम से चलते हुए। उन्होने आकर शेरनी को बताया कि किस तरह उनका कायर भाई खुद तो डर ही रहा था, उनसे भी जान बचाकर भागने को कह रहा था।
     माँ के सामने इस तरह मजाक बनता देख सियार के बच्चे को गुस्सा आ गया। वह अपने भाइयों को चुनौती देता हुआ बोला-मूर्खों! मैने बेकार ही तुम्हारी मदद की। मैं भी शेरनी का बच्चा हूँ, फिर कायर कैसे हुआ? मैं अभी मज़ा चखाता हूँ तुम्हें। उसे इस प्रकार नाराज़ देखकर शेरनी बोली- शांत हो जा मेरे बच्चे। चल, बाहर चलते हैं। मुझे तुझ से अकेले में कुछ बात करनी है। बाहर आकर शेरनी ने उसे समझाते हुए कहा-तुझे अपने बड़े भाइयों से इस तरह से बात नहीं करनी चाहिए। माँ को भाईयों की तरफदारी करता देख वह चिढ़ते हुए बोला-मेरी क्या गलती है माँ। एक तो मैने चतुराई दिखाई। क्या वो इतने विशाल जावनर का सामना कर सकते थे? गलती मानने की जगह उल्टे मेरा मज़ाक बना रहे हैं। समझते क्या हैं वे अपने आपको। देखना माँ, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो उन्हें ऐसे ही जावनर का शिकार करके दिखाऊँगा।
     उसकी बात सुनकर शेरनी सोचने लगी- मेरे लिए तीनों बच्चे बराबर हैं, लेकिन हैं तो यह सियार का ही बच्चा। हालांकि यह चतुर है, लेकिन इसमें उतनी ताकत कहाँ, जितनी मेरे बच्चों में है। अच्छा यही है कि मैं इसे इसकी असलियत के बारे में बता दूँ, वरना ऐसा न हो कि कहीं देर हो जाए। और शेरनी ने उसे सारी बात बता दी। अपने बारे में जानकर वह समझ गया कि माँ उसे क्यों समझा रही थी। उसे अपने डरपोक होने का कारण भी समझ में आ गया। और उसके बाद वह  बिना समय गँवाए वहां से अपने साथियों की खोज में निकल गया। वह सियार का बच्चा था, जिसमें कायरता के साथ चतुराई का गुण भी जन्मजात था। उसे समझ में आ गया कि यहाँ से निकल जाने में ही भलाई है। वह यह भी जान गया था कि वह चाहकर भी शेर के बच्चों की बराबरी नहीं कर सकता।
     मंत्र यह है कि सबकी अपनी-अपनी क्षमताएँ होती हैं। इसलिए पहले अपनी और अपनों की क्षमताओं को पहचानो। यदि वे बड़े लक्ष्यों के लिए हैं तो अपने लक्ष्य बड़े बनाओ। यदि वे कम हैं तो परेशान होने की आवश्यक्ता नहीं क्योंेंकि हम जानवर नहीं, मनुष्य हैं। और एक मनुष्य अपने पुरुषार्थ से अपनी क्षमताएँ बढ़ा सकता है। इन्हें बढ़ाने का सामान्य-सा मंत्र है कि हम वे काम करें, जिन्हें करने से डरते हैं। इस तरह जैसे-जैसे आप डर को जीतते जाएँगे, आपकी क्षमताएँ बढ़ती जाएँगी और फिर हम बड़े लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी सफल होते जाएँगे।

Tuesday, August 9, 2016

सोएँ तो घोड़े बेचकर


     किसी नगर में एक उद्योगपति रहता था। वह अथाह संपत्ति का मालिक था। न जाने कितनी फैक्टरियाँ थीं उसकी जिनमें हज़ारों लोग काम करते थे। वह इतना महत्वपूर्ण था कि आर्थिक नीतियों को तय करने से पहले उसके विचार लिए जाते थे। मीडिया की निगाहें हमेंशा उस पर लगी रहती थी। उसका निवास स्थान भी बड़ा आलीशान था। संसार का कौन-सा ऐसा सुख था, जो वह अपनी संपत्ति के बल पर प्राप्त नहीं कर सकता था और कौन-सी ऐसी वस्तु थी, जिसे वह खरीद नहीं सकता था। उसके बंगले में नौकरों-चाकरों की फौज थी, लेकिन इन सबके होते हुए भी दुःखी था क्योंकि उसे नींद न आने की बीमारी थी। देश-विदेश के बड़े-बड़े डाक्टरों से वह इलाज करा चुका था, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। नींद को न आना था, न वह आई। वह बहुत परेशान हो गया था। उसे अपनी सारी संपत्ति व्यर्थ प्रतीत होती थी। और सही भी है कि जब चैन से सोने को न मिले तो तिजोरियों में भरे सोने का क्या लाभ?
     उद्योगपति की पत्नी भी उसकी इस हालत के कारण काफी परेशान रहती थी। एक दिन उसके नगर में बहुत बड़े योगी पधारे। पत्नी ने उसे उस योगी से मिलने की सलाह दी। पत्नी कि सलाह पर वह बेमन से उनसे मिलने गया। वहाँ उसने योगी को अपनी परेशानी बताई। उसकी बात सुनकर योगी ने कहा कि पहले तुम मुझे अपनी दिनचर्या के बारे में बताओ। उसने अपनी पूरी दिनचर्या योगी को बता दी और बोला-अब आप ही बताएँ कि मेरे रोग का इलाज क्या है? मैं क्या करूँ?
     उसका प्रश्न सुनकर योगी बोले-महाशय! आपके रोग का कारण आपका अपाहिज होना है। योगी की बात सुनकर वह आश्चर्य से बोला- ये क्या कह रहे हैं आप! मैं और अपाहिज! मेरे तो सारे अंग-प्रत्यंग सही सलामत हैं। उसकी बात सुनकर योगी बोले- हाँ! लेकिन क्या तुम इनको ठीक तरह से उपयोग में लाते हो? तुमने अभी अपनी दिनचर्या बताई। इनमें कितनी जगह तुम अपने हाथ-पैर का सही इस्तेमाल करते हो। हर काम के लिए तुम दूसरों पर निर्भर हो। घर में नौकर-चाकरों और दफ्तर में सहायकों पर। और रही-सही कसर तुम्हारी पत्नी पूरी कर देती है। जब हाथ-पैर होते हुए भी तुम उनका उपयोग नहीं करते हो तो फिर अपाहिज ही हुए ना? ज़रा कष्ट दो अपने शरीर को। व्यायाम करो, कुछ और काम करो, इतना करो कि तुम्हारा शरीर थकान से चूर हो जाए। फिर देखो, नींद कैसे नहीं आती। वैसे भी यदि यही हाल रहा तो हो सकता है कि कुछ समय बाद तुम्हें और भी बीमारियाँ घेर लें। इसलिए बेहतर है कि अभी से सतर्क हो जाओ। योगी अंत में बोले- तो फिर आज जाकर अपने काम खुद करने की कोशिश करो, उसके बाद परिणाम देखो।
     योगी की बात ध्यानपूर्वक सुनने के बाद उद्योगपति उन्हें प्रणाम कर लौट आया और उसने न चाहते हुए भी योगी की बात को आजमाने के लिए उस पर अमल किया। शाम को वह थक-हार कर घर लौटा और डिनर करने के बाद तुरंत अपने बैडरूम में चला गया। उसकी पत्नी को यह बात कुछ अजीब लगी। थोड़ी देर बाद जब वह पति का हाल जानने के लिए बेडरूम में गई तो उसने देखा कि उसके पति खर्राटे ले रहे हैं। पति को इस अवस्था में देख उसने चैन की साँस ली।
     यह केवल उस उद्योगपति की कहानी नहीं है, आज सफलता पाने की तमन्ना में भागते-दौड़ते हर उस व्यक्ति की कहानी है जो सब कुछ पा लेने के चक्र में अपनी नींद की कुर्बानी देता रहता है। यहाँ समस्या हाथ-पैर न चलाने की नहीं, बल्कि जल्दबाज़ी की है। उसे सारी खुशियाँ चुटकी बजाते ही चाहिए और जब ऐसा नहीं होता तो तनाव के कारण उसकी नींद उड़ जाती है। ऐसे लोगों की संख्या महानगरों में अधिक है जहाँ नींद न आने की बीमारी आम बात है। लेकिन अब यह समस्या धीरे-धीरे छोटे शहरों को भी अपनी गिरफ्त में लेने लगी है। ये वे लोग हैं जो सोचते हैं कि दिन केवल चौबीस घंटे का ही क्यों होता है? अधिक घंटों का होता तो लक्ष्य जल्दी पा जाते।
     लेकिन यकीन मानिए, ऐसा होना संभव नहीं है। आप खुद ही सोचिए, जब आप किसी कार्य में व्यस्त होने के कराण एक-दो दिन ठीक से सो नहीं पाते तो तीसरे दिन आपको काम करते-करते नींद आने लगती है। इसका असर होता है आपके कार्य पर और परिणाम यह होता है कि आपकी कार्यकुशलता प्रभावित होती है। यदि अधिक समय तक ऐसा चलता है तो आप जाने-अनजाने सफलता के नहीं, असफलता के पीछे भाग रहे होते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि आप जिस किसी भी तरह के काम से जुड़े हों, उसे नियत समय में करें और चौबीस घंटे के दिन के चक्र में सात-आठ घंटे की नींद अवश्य लें। नींद न केवल आपको तरोताज़ा करती है, बल्कि काम करने की नई स्फूर्ति भी देती है। एक बात और, सोते वक्त सब कुछ भूलकर ऐसे सोएँ जैसे कि घोड़ा बेचकर आए हों। हाँ, दूसरी ओर यह भी सही है कि नियत अवधि से ज्यादा न सोएँ क्योंकि ज्यादा सोना भी वैसे ही दुष्परिणाम देता है, जैसे कम सोने के होते हैं।

Friday, August 5, 2016

क्रोध की प्रतिक्रिया क्रोध नहीं


     महाभारत की एक शिक्षाप्रद कथा है। भीष्म ने कौरवों और पांडवों के शिक्षण का दायित्व द्रोणाचार्य को सौंपा था। द्रोणाचार्य की अपनी शिक्षण पद्धति थी और वे किसी शिष्य का पीछा तब तक नहीं छोड़ते थे, जब तक कि शिष्य उनके द्वारा दिए गए पाठ को ठीक से याद न कर ले। एक बार उन्होने अपने सभी शिष्यों को बुलाकर कहा कि आज का पाठ है "क्रोध न कर' आप सभी इस पाठ को याद कर कल मुझे सुनाएँगे। अगले दिन सभी शिष्य जब कक्षा में आए तो द्रोणाचार्य ने सभी से पाठ दोहराने को कहा। युधिष्ठिर को छोड़कर सभी ने पाठ दोहरा दिया।
     गुरु जी ने पूछा-पुत्र! क्या बात है? तू तो इन सबसे बड़ा है, फिर भी तुझे इतना छोटा-सा पाठ याद नहीं हुआ। जा, कल याद करके जरूर सुनाना। युधिष्ठिर ने कहा- जी गुरुदेव! मैं अवश्य प्रयत्न करूँगा। अगला दिन आया और फिर वहीं कहानी दोहराई गई। युधिष्ठिर ने कहा कि उसे पाठ याद नहीं हुआ। गुरु जी ने फिर से अगले दिन याद करके आने को कहा। इस तरह कई दिन व्यतीत हो गए। द्रोणाचार्य हैरान थे कि उनका एक योग्य शिष्य, इसे साक्षात धर्मराज का अवतार माना गया है, इतना छोटा-सा पाठ याद नहीं  कर पा रहा है। बाकी शिष्य आगे के कई पाठ याद कर चुके थे। जब कई दिन व्यतीत हो गए तो एक दिन द्रोणाचार्य ने निर्णय किया कि आज तो मैं इसे पाठ याद करवाकर ही रहूँगा। जब कक्षा प्रारंभ हुई तो उन्होने यधिष्ठिर से प्रतिदिन की तरह पाठ सुनाने को कहा।
     युधिष्ठिर ने कहा-गुरुदेव! बहुत प्रयत्नों के बाद भी मुझे पाठ पूरी तरह याद नहीं हुआ। इसलिए मैं इसे आपको सुनाने में असमर्थ हूँ। गुरुदेव तो पहले ही ठान कर बैठे थे कि आज तो वे किसी भी स्थिति में उसे पाठ याद कराएँगे। युधिष्ठिर का उत्तर सुनकर उन्हें क्रोध आ गया और उन्होने युधिष्ठिर की पिटाई शुरु कर दी। इतना सा पाठ याद नहीं होता तुझे। निरामूर्ख है। ऐसा कहते कहते वे युधिष्ठिर की पिटाई करते जा रहे थे। लेकिन युधिष्ठिर था कि खड़ा-खड़ा मुस्करा रहा था, जैसे उस पर पिटाई का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ रहा हो, उसको मुस्कराते देख गुरुदेव का क्रोध और भी बढ़ता जा रहा था और वे और अधिक शक्ति से उसे पीटने लगे। इस प्रकार पीटते-पीटते जब वे थक गए और उन्होने पीटना बंद कर दिया, तब भी युधिष्ठिर मुस्करा ही रहा था। आचार्य से रहा नहीं गया। उन्होने आश्चर्य से पूछा- मैं तुझे पीट रहा हूँ और तू मुस्करा रहा है?
     गुरुजी की बात सुनकर युधिष्ठिर ने गुरुदेव के थके हाथों को दबाते हुए कहा- जी गुरुदेव! आप ही ने तो सिखाया है "क्रोध न कर।' युधिष्ठिर आगे बोला-इतने दिनों से मैं अनुभव कर रहा था कि जब भी कौरव मेरा उपहास करते हैं, मुझे क्रोध आ जाता है और मैं उस पर नियंत्रण नहीं रख पाता। लेकिन आज मैने पाया कि जब आप मेरी पिटाई कर रहे थे, उस दैरान कौरवों की उपहासपूर्ण भावभंगिमाएँ देखकर भी मुझे क्रोध नहीं आया। अब मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूं कि मुझे यह पाठ याद हो गया है। युधिष्ठिर की बात सुनकर गुरुदेव को अपने किए पर पछतावा होने लगा और वे स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले-पुत्र! सही कहा तुमने। तुम्हें तो यह पाठ याद हो गया, लेकिन तुम्हें सिखाते-सिखाते मैं स्वयं भूल गया था। आज मैने अपने शिष्य से इस पाठ को पुनः सच्चे अर्थों में सीख लिया।
     यही है आज का मंत्र "क्रोध न कर।' लेकिन यह मंत्र तभी फलीभूत होगा, जब आप इसे न सिर्फ याद करें बल्कि व्यवहार में भी लाएँ। यहाँ सीखने वाली एक और बात है कि जब एक व्यक्ति क्रोध कर रहा हो तो हमें प्रत्युत्तर में कभी क्रोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि क्रोध को अग्नि समान माना गया है और आग को बुझाने के लिए कभी आग का प्रयोग नहीं किया जाता। इसलिए ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति को संयम से काम लेना चाहिए, क्योंकि जो क्रोध कर रहा है, उसे बाद में पछतावा अवश्य होगा। कहा भी गया है कि क्रोध मूर्खता से शुरु होता है और पश्चाताप पर खत्म। गुरु द्रोणाचार्य को भी बाद में इसी तरह पश्चाताप हुआ।
     कहते हैं कि क्रोध कुछ पल का पागलपन होता है। इस पर काबू पाने का सबसे आसान उपाय यह है कि जब भी आपको क्रोध आए तो दस तक गिनती गिनें और यदि अधिक क्रोध आए तो हज़ार तक गिने। यह नई बात नहीं है, हम सभी ने अनेक बार सुनी-पढ़ी है, लेकिन क्रोध आने पर हम इस पर अमल नहीं करते और इसी कारण क्रोध के परिणाम भुगतने पड़ते हैं। ये तो हुई कुछ सामान्य सी बातें क्रोध के बारे में। लेकिन केवल इतनी-सी बातों से काम नहीं चलेगा। यह इतना गंभीर विषय है कि इस पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। इसलिए हम आगे भी इस विषय को तब तक दोहराते रहेंगे जब तक कि आप थक-हारकर क्रोध करना न छोड़ दें। आज के लिए सिर्फ इतना ही कि "क्रोध की प्रतिक्रिया क्रोध नहीं हो सकता।' इसलिए भविष्य में जब भी आप पर कोई क्रोध करे तो आप इस मंत्र को याद करते हुए बिना प्रतिक्रिया व्यक्त किए शांत भाव से सुनते रहें। अंतिम परिणाम वही होंगे जो यधिष्ठिर के साथ हुए।

Monday, August 1, 2016

बोलें ऐसा जो समझ में आए


     बृहदारण्यक उपनिषद के पंचम अध्याय की एक कथा है। एक बार देवता, मनुष्य और असुर मिलकर प्रजापति के पास पहुँचे। उन्होने अपने कल्याण के लिए प्रजापति से उपदेश देने का आग्रह किया। उनके आग्रह को प्रजापति ने स्वीकार कर लिया, लेकिन उन्होने सभी से पहले ब्राहृचर्य व्रत का पालन करने को कहा। निश्चित अवधि तक इस व्रत का पालन पूरी लगन और तपस्या से करने के बाद वे प्रजापति के पास पहुँचे। उन्हें देखकर प्रजापति ने कहा कि अब तुम सभी मेरे उपदेशों सो सुनने के योग्य हो गए हो। उसके बाद उन्होने सबसे पहले देवताओं को बुलाया। जब देवता उनके पास आ गए तो प्रजापति ने तेज़ स्वर में उनसे "द' अक्षर कहा और मौन हो गए। सभी देवता "द' का अर्थ सोचने लगे। कुछ क्षण बाद उन्होने देवताओ से पूछा कि क्या आप समझ गए कि "द' से मेरा आशय क्या है? देवता बोले- जी प्रजापति! "द' अर्थात दमन करो।' आपने हमें अपनी इंद्रियों का दमन करने का आदेश दिया  है। प्रजापति बोले- बिल्कुल ठीक। तुमने इसका सही अर्थ समझा है। तुम्हें यही करना चाहिए, इससे तुम्हारा कल्याण  होगा। इसके बाद मनुष्य आगे आए। प्रजापति उन्हें भी "द' अक्षर कहकर मौन हो गए। अब सभी मनुष्य उस पर विचार करने लगे। प्रजापति ने कुछ समय बाद उनसे पूछा-तुम समझे या नहीं कि "द' से मेरा आशय क्या है? मनुष्य बोले- जी प्रजापति! आप हमें "दान' करने का आदेश दे रहे हैं। प्रजापति ने मनुष्यों से कहा- तुम भी ठीक समझे। जाओ और खूब दान करो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा। अंत में असुर आगे आए। प्रजापति ने उनसे पूछा- क्या तुम मेरा उपदेश सुनने के लिए तैयार हो? असुर बोले- जी हाँ, प्रजापति! हम तैयार हैं। प्रजापति बोले- तो सुनो! उसके बाद प्रजापति ने उनसे भी "द' अक्षर कहा, और एक बार वे फिर से मौन हो गए। असुर भी "द' अक्षर के पीछे छिपे आदेश के बारे में विचार करने लगे। कुछ समय बाद प्रजापति ने उनसे पूछा-असुरों! तुम क्या समझे "द' अक्षर से मेरा आशय? असुर बोले-प्रजापति! आपने हमें 'दया' करने का आदेश दिया है। आपने कहा है कि हम सभी पर दया करें। प्रजापति बोले-तुम भी ठीक समझे। तुम्हारे लिए "द' से मेरा यही आशय था। जाओ और सभी पर दया करो। इसमें ही तुम्हारा कल्याण निहित है। उसके बाद सभी प्रजापति का अभिवादन कर वहाँ से चले गए।
     इस कथा की पृष्ठभूमि कुछ इस तरह थी कि उपनिषद काल में एक समय ऐसा आया कि सभी देवता विलासी हो गए। वे अपनी इंद्रियों के वशीभूत होकर अपने कर्तव्यों को भूल गए थे। सिर्फ भोगों में लिप्त होकर विलासितापूर्ण जीवन जीना ही उनका उद्देश्य बन गया था। उनकी यह प्रवृत्ति कम होने की जगह दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी। मनुष्यों का आचरण भी संग्रह प्रधान हो गया था। वे सभी वस्तुओं व धन संपत्ति के संग्रह में लगे थे। दान-दक्षिणा से तो जैसे उनका कोई लेना-देना ही नहीं रह गया था। जिससे समाज में आर्थिक विषमता बढ़ती जा रही थी। दूसरी ओर असुरों ने चारों ओर हिंसा और अत्याचार का वातावरण निर्मित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी। उन्हें किसी पर भी दया नहीं आती थी। वे केवल मारकाट में ही विश्वास रखते थे। प्रजापति ने उन सभी की मनोवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए ही एक ही अक्षर "द' के माध्मय से उपदेश दे दिया और तीनों ने अपने आचरणों और कर्मों के अनुसार उसका आशय अपने-अपने लिए सही अर्थो में ग्रहण किया। इसे कहते हैं "संचार योग्यता' यानि "कम्युनिकेशन स्किल।'
     यह कथा कई तरह से सीख देने वाली है, लेकिन सबसे प्रमुख सीख जो इससे मिलती है, वह यही कि यदि आप में योग्यता है तो आप कितने संक्षेप में अपनी बात सामने वाले को समझा सकते हैं। यहाँ तक कि केवल एक शब्द से ही दूसरे व्यक्ति को अपनी बात समझाई जा सकती है। कह सकते हैं कि संचार में शब्द महत्वपूर्ण नहीं होते। ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात है कि आप क्या कह रहे हैं और किससे कह रहे हैं। संचार की पूर्णता इस बात में है कि वक्ता द्वारा कही गई बात श्रोता द्वारा उन्हीं संदर्भों में ग्रहण कर ली जाए जिन संदर्भों में वक्ता ने कही है, यानी वक्ता के कहने का आशय श्रोता को सही-सही समझ में आ जाए। केवल भारी-भरकम  शब्दों का प्रयोग कर अपनी भाषायी योग्यता का प्रदर्शन करने से ही संचार पूरा नहीं होता। यदि आप जो कह-लिख रहे हैं, वह सामने वाले की समझ में ही नहीं आ रहा तो ऐसी बातों का क्या मतलब? आप पांडित्य झाड़ते रहें और सामने वाला उसे ग्रहण ही न कर पाए। इसलिए जब आप कोई भी बात सामने वाले की मनोस्थिति और स्तर देखते हुए कहेंगे, तो वह आसानी से उसकी समझ में आ जाएगी। संचार क्रांति के इस दौर में जबकि किसी भी व्यक्ति या व्यवसाय की सफलता में संचार का योगदान महत्वपूर्ण हो गया है, ऐसे में इस बात को ध्यान में रखना और भी ज़रूरी हो जाता है। आज के समय में जबकि आपको अपने कार्य के सिलसिले में विस्तृत दायरे में संचार करना पड़ता है। यानी देश-विदेश में रहने वाले विभिन्न संस्कृति वाले लोगों से कई स्तरों पर वार्तालाप करना होता है तो ऐसी स्थिति में सफलता दिलाने में संचार योग्यता की निर्णायक भूमिका होती है। इसलिए "भाषायी योग्यता' से ज्यादा ज़रूरी है संचार योग्यता।' और इसके साथ साथ मनुष्य को दान करते रहना चाहिए।
पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम।।
दोनों हाथ उलीचिए यही सयानों काम।