Friday, July 29, 2016

आलस्य को छोड़ो, किस्मत को मोड़ो


     एक बार दो आलसी मित्र एक आम के पेड़ के नीचे लेटे हुए थे। इस तरह से लेटे हुए उन्हें बहुत समय बीत चुका था। इस कारण उन्हें भूख भी लगने लगी थी, लेकिन आलसी व्यक्ति भूख के आगे हार मान जाए तो फिर वह आलसी कैसा? वे भी अपनी जगह से नहीं हिले और उन्हें पेड़ के नीचे पड़े हुए सुबह से रात हो गई। जब भूख ज्यादा बढ़ गई तो एक आलसी ने अपना मुँह खोल लिया। उसे ऐसा करते देख दूसरा आलसी अपनी जगह से बिना हिले बोला-ये, क्या कर रहा है तू?
     इस पर पहला आलसी बोला-देख न यार, यह आम का पेड़ कितना निर्दयी है। मैं भूख के मारे कब से मुँह खोले पड़ा हूँ, लेकिन इसे मेरी हालत पर ज़रा भी दया नहीं आती। इसके पास कितने सारे आम हैं, एकाध मेरे मुँह में टपका भी देगा तो इसका क्या घट जाएगा। उसका इतना कहना था कि आम के पेड़ से एक आम टपककर उसकी छाती पर आ गिरा। जैसे आम के पेड़ ने उसकी पुकार सुन ली हो, लेकिन यहां नई मुसीबत। आम टपका भी तो छाती पर। एक बार मुँह में टपकता तो उसे चबाने की तकलीफ वह कर भी सकता था। अब क्या करे? वह सोचने लगा- मेरा आलसी दोस्त तो उठकर खिलाने से रहा, काश! कोई राहगीर यहां से गुज़रे और मुझे आम खिलाए। इस तरह सोचते हुए रात से सुबह हो गई।
     सुबह वहां से जागिंग करता हुआ एक आदमी गुज़रा। उसने देखा कि पेड़ के नीचे पड़े हुए दो व्यक्तियों को एक कुत्ता सूँघ रहा है। उसने सोचा कि शायद दोनों रात में ठंड से ठिठुरकर मर गए हैं, जाकर थाने में खबर करता हूँ। वह ऐसा सोच ही रहा था कि उसकी दृष्टि आलसियों की आँखों पर पड़ी। उनकी आँखें खुली हुई थीं और पलकें झपक रही थीं। आदमी ने सोचा नज़दीक-जाकर देखता हूँ, माज़रा क्या है? ऐसा विचार कर पहले तो उसने कुत्ते को भगाया और फिर आलसियों के नज़दीक पहुँचकर उसने पूछा-क्यों! जिंदा हो या मर गए? उसकी बात सुनकर पहला आलसी बोला- शुभ-शुभ बोलो भैया! मरें हमारे दुश्मन। हम तो अच्छे-भले हैं और आप जैसे ही किसी भले आदमी का इंतज़ार कर रहे हैं कि वह आकर हमें आम खिलाए जिससे कि कल से भूखे पेट में कुछ तो जाए। उसकी बात सुनकर आदमी को यह समझते देर नही लगी कि उसका पाला आज आसलियों से पड़ा है।
     वह बोला- तुम दोनों आलसी हो क्या? मैं क्यों खिलाऊँ, यह आम तुम्हें खुद खाना चाहिए। इसके पहले कि वह जवाब देता दूसरा आलसी बोला- इसके आलस की तो मत पूछो भैया, रात भर से कुत्ता मेरा मुँह चाट रहा था लेकिन इसकी हिम्मत नहीं हुई कि उठकर उसे भगा दे। तो उसे तुमने खुद क्यों नहीं भगाया? उस आदमी ने पूछा। दूसरा आलसी बोला- मैं कैसे भगाता भैया, मैं तो लेटा हुआ था ना। अच्छा, सही कहा तुमने, तुम तो लेटे हुए थे। ऐसा कहकर उस आदमी ने आलसी की छाती पर पड़े हुए आम को उठाकर घुमाना शुरु कर दिया। उसे ऐसा करते देख दोनों आलसियों ने आम खाने के लिए अपने मुँह खोल लिए, लेकिन आदमी ने आम उन्हें खिलाने की बजाए खुद ही खाना शुरु कर दिया और उन्हें ठेंगा दिखाता हुआ आगे बढ़ गया। उसे मालूम था कि दोनों आलसी उसके इस व्यवहार का भी प्रतिकार करने के लिए नहीं उठेंगे।
     सही सोचा था उसने और आलसियों के साथ किया भी सही। हाथ आए मौके को कोई आलसी ही गवां सकता है। दरअसल वह आम नहीं एक मौका ही तो था और एक बुद्धिमान व सच्चे व्यक्ति मिले हुए अवसर का भरपूर लाभ उठाता है। यही उसने किया भी और स्वादिष्ट आम का भरपूर मज़ा उठाया।
     दूसरी ओर आलसी उसका ठेंगा देखते रह गए। वैसे भी दोनों गलतफहमी में थे कि वे अच्छे-भले हैं। वे तो मनुष्य के सबसे बड़े दुश्मन यानी आलस्य को अपने शरीर में किराएदार बनाकर बैठे हुए हैं। यही वह दुश्मन है जो उन्हें अहसास ही नहीं होने देता कि वे जीवित होकर भी मृत समान ही हैं। इसलिए जब तक वे इससे पीछा नहीं छुड़ाएँगे तब तक ज़िन्दगी में कुछ नहीं कर पाएँगे। एक बात और है, कई लोग आलस्य का मतलब सोने-सुलाने से लेते हैं और सोचते हैं कि हम तो बहुत कम सोते हैं फिर आलसी कैसे हुए। ऐसे लोग भी गलती पर हैं, क्योंकि किसी भी प्रकार की सुस्ती भी आलस्य की श्रेणी में ही आती है। तेज़ी के इस युग में जबकि एक क्षण की सुस्ती भी हमारी किस्मत बिगाड़ सकती हो तो हमें हर वक्त सचेत रहना चाहिए। इसलिए यदि आप किस्मत को मोड़ना चाहते हो, तो आलस्य को छोड़ना होगा। वरना आज के प्रतियोगी युग में यह आम बात है कि किसी की छाती पर गिरे अवसर रूपी आम का मज़ा कोई दूसरा ही लूट रहा होता है। मुझे उम्मीद है आप ऐसा नहीं होने देंगे और अपना आम खुद ही खाएंगे।

Monday, July 25, 2016

जैसा सोचोगे , वैसा बनोगे


     एक बार देवर्षि नारद जी हमेशा की तरह घूमते-घूमते उज्जयिनी पहुँचे। वहाँ उनका एक मित्र रहता था। उन्होने सोचा के बहुत दिन हो गए हैं, क्यों न आज अपने मित्र से भेंट की जाए। जब वे मित्र के घर पहुँचे तो उसे पहचान ही नहीं पाए। जब पहचाने तो बोले-मित्र! यह क्या दशा बना रखी है? जब हम पिछली बार मिले थे, तब तुम हट्टे-कट्टे  नौजवान थे। और अब अपने शरीर को देखो, जैसे सूखकर काँटा हो गए हो। इसका कारण क्या है?
     इस तरह नारद ने उस पर प्रश्नों की बौछार कर दी। जब नारद के सभी प्रश्न खत्म हो गए तो वह बोला-मित्र! तुम सही कहते हो। लेकिन अब वे दिन लद गए जब मैं जवान था, कुँवारा था। अब मैं शादीशुदा हूँ, बाल-बच्चेदार हूँ। मेरी आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं रही। घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारी में आदमी की हालत ऐसी ही हो जाती है। परन्तु तुम मेरी बातों को कैसे समझोगे, तुम तो ब्राहृचारी हो। सांसारिक परेशानियों से तुम्हारा क्या लेना-देना। खैर, छोड़ो, और बताओ कैसे आना हुआ? उसकी बात का नारद ने कोई उत्तर नहीं दिय। वे मित्र की हालत देखकर व्यथित थे और उसकी सहायता करना चाहते थे। लेकिन उनके पास उसे देने के लिए कुछ नहीं था। अचानक उन्हें एक उपाय सूझा। वे बोले-ये सब चलता रहेगा। चलो हम स्वर्गलोक घूमकर आते हैं।
     इस पर वह बोला- लेकिन, मेरी पत्नी और बच्चे। नारद बोले-कुछ समय के लिए उन्हें भूल जाओ। थोड़ा समय अपने मित्र के साथ भी तो बिताओ। हम दोनों जल्दी ही लौट आएँगे। नारद की बात पर वह सहमत हो गया और दोनों स्वर्गलोक में पहुँचे। वहाँ एक अत्यंत खूबसूरत बाग था। नारद उसे एक वृक्ष के नीचे इंतज़ार करने को कहकर देवराज इंद्र के महल में चले गए। नारद जी के जाने के बाद वह वहाँ के सौंदर्य को निहारने लगा। जब बहुत देर हो गई और नारद जी नहीं लौटे तो वह बैठा-बैठा थक गया। अचानक उसके मन में एक विचार उठा-इतनी सुंदर जगह पर यदि बिस्तर भी होता तो लेटने में कितना आनंद आता। उसका विचार अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि उसने देखा कि वह एक आरामदायक बिस्तर पर लेटा हुआ है। अपने आपको बिस्तर पर पाकर वह आश्चर्यचकित हुआ लेकिन फिर उसने सोचा कि यह स्वर्ग है, शायद कोई चमत्कार हुआ होगा।
     कुछ समय बाद उसके मन में विचार आया कि काश! कोई आकर मेरे पैर दबा दे तो कितना आराम मिले। पलक झपकते ही वहाँ कई सुंदर अप्सराएँ आ गर्इं। कोई उसके हाथ दबाने लगी तो कोई पाँव। कुछ देर तो वह आनंद में रहा, लेकिन अचानक उसे विचार आया कि यदि मेरी पत्नी यह सब देख ले तो वह निश्चित ही मुझे पीटने लगे। फिर क्या था, उसकी बीबी सामने खड़ी थी हाथ में बेलन लिए। उसने उसके विचार के अनुसार पीटना भी शुरू कर दिया। वह बीबी से डरकर भागा तो सामने से नारद जी आ रहे थे। वे अंदर से छुपकर सब देख रहे थे। दरअसल वे जान बूझकर उसे कल्पवृक्ष के नीचे बैठाकर गए थे ताकि वह अपनी सभी मनोकामनाएं पूरी कर ले और वे उसे वापिस उसके घर छोड़ आएँ। नारद उससे बोले-बड़े ही मूर्ख हो तुम। सोचना ही था तो कुछ अच्छा सोचते जिससे तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का कल्याण होता। यहाँ सोचा भी तो बीबी से पिटने के बारे में। स्वर्ग में बैठकर भी तुम्हारी सोच नहीं बदली। मैं पहले ही कह रहा था कि कुछ समय के लिए अपनी परेशानियों को भूल जाओ। यदि भूल जाते तो शायद तुम्हें इस तरह भागना नहीं पड़ता।
     नारद के उस मित्र जैसी हालत उन सभी लोगों की होती है, जो अपने घर की परेशानियों को आफिस और आफिस की परेशानियों को घर ले जाते हैं। या फिर इसे इस तरह समझें कि हम परेशानियों का बोझा इस तरह से ढोते हैं कि हम कहीं भी जाएं, वे हमारा पीछा नहीं छोड़तीं। इससे न केवल हम खुद परेशान रहते हैं, बल्कि अपने आसपास के माहौल को भी तनाव भरा बना देते हैं। इसलिए हमें इस प्रवृत्ति पर काबू पाना ज़रूरी है, वरना यह विक्रम के बेताल की तरह पीठ पर लदी हर जगह पहुँच जाएगी। अतः जहाँ की चीज़ हो, उसे वहीं तक सीमित रहने दो। आफिस से निकलो तो वहां की परेशानियाँ भूलकर और घर से निकलो तो घर की।
     दूसरी बात, नकारात्मक विचारों से सफलतता मिलना उतना ही असंभव है, जितना कि बबूल के पेड़ पर आम का लगना। हम अपने नकारात्मक विचारों के जाल में इस तरह उलझते जाते हैं कि चाहकर भी उससे मुक्त नहीं हो पाते। केवल सोच की वजह से ही वह व्यक्ति उस स्थान से खाली हाथ लौट आया, जहाँ पर उसे दुनियाँ भर की खुशियाँ मिल सकती थी। इसलिए जीवन में आगे बढ़ने की सोच रहे लोगों के लिए यह ज़रूरी है कि पहले अपनी सोच का दायरा बढ़ाएँ क्योंकि सोच में इतनी शक्ति होती है कि आप जैसा सोचते हैं, वैसा ही बन सकते हैं। यानी कल्पवृक्ष स्वर्ग में नहीं, हमारे भीतर ही है जो मन में उत्पन्न विचारों के अनुसार फल देता रहता है। इसलिए ज़रूरी है कि आप विचारों को नियंत्रित करें, विचार आपको नहीं।

Saturday, July 23, 2016

खुद को न उलझायें, समस्या सुलझाएं


     एक बार एक शिष्य अपने गुरु जी के पास आया। वह बहुत परेशान लग रहा था। गुरु ने पूछा-पुत्र! क्या बात है, बहुत चिंतित लग रहे हो? शिष्य ने कहा- जी गुरुदेव! इन दिनों मैं एक समस्या का सामना कर रहा हूँ। समस्या बड़ी नहीं है, लेकिन मैं उसका हल नही खोज पा रहा हूँ। इस बात ने मुझे इतना परेशान कर दिया है कि अब तो मेरे सोचने-समझने की शक्ति भी जवाब दे गई है। कुछ उपाय सूझता ही नहीं। दूसरी ओर आपने सिखाया भी है कि समस्याओं से भागो मत, उनका सामना करो, इसलिए मैने भी ठान लिया है कि जब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो जाता, मैं चैन से नहीं बैठूँगा। ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? आपकी आज्ञा हो तो मैं अपनी समस्या बताऊँ।
     शिष्य की बात सुनकर गुरु जी बोले- नहीं, मुझे समस्या के बारे में मत बताओ, क्योंकि यदि तुम कहते हो कि समस्या छोटी है तो उचित यही होगा कि उसका हल तुम स्वयं ही खोजो। लेकिन हाँ, तुम्हारी अभी की स्थिति में तुम्हें इसका सामना कैसे करना चाहिए, यह मैं अवश्य बता सकता हूँ। इसके लिए तुम्हें मेरे कुछ प्रश्नों का जवाब देना होगा और तुम्हारे जवाबों में ही समस्या का समाधान छुपा होगा।
     इसके बाद गुरु जी ने अपने पास रखे कमण्डल को हाथ में उठाकर शिष्य से प्रश्न पूछना शुरु किया- यह क्या है और इसमें क्या भरा हुआ है? शिष्य बोला- यह कमंडल है और इसमें पानी भरा हुआ है। गुरु जी ने दूसरा प्रश्न किया- अच्छा, मुझे बताओ कि इस पानी का भार कितना है? शिष्य सोच में डूब गया, वह केवल अंदाज़ा ही लगा सकता था। वह निरूत्तर-सा गुरु जी की ओर देखने लगा। उसे देखकर गुरु जी बोले-परेशान मत हो, इसका उत्तर मुझे भी नहीं पता।
     तत्पश्चात गुरु जी ने उस कमंडल को उठाकर अपनी हथेली पर रख लिया और बोले, अब तुम यह बताओ कि यदि इस कमंडल को मैं इसी तरह कुछ क्षण अपनी हथेली पर रखा रहने दूँ तो क्या होगा? शिष्य बोला-कुछ नहीं, गुरुदेव! गुरु बोले-मान लो, मैं इसे लेकर इसी मुद्रा में एक-दो घंटे बैठा रहूँ तो? शिष्य सोचकर बोला, जी, आपका हाथ दर्द करने लगेगा। गुरु जी ने मुस्कराकर जवाब दिया-सही कहा तुमने। अच्छा, इसे मैं पूरे एक दिन लेकर बैठा रहूं, तो फिर क्या होगा    ?
     शिष्य तुरंत बोला- तब आपके हाथ की मांसपेशियां शिथिल हो जाएंगी और वह सुन्न पड़ जाएगा। जहाँ तक कि आपको लकवा भी मार सकता है और हो सकता है कि आपको उपचार की आवश्यकता पड़ जाए। गुरु जी बोले-अति उत्तम। तुम बहुत समझदार हो गए हो। आगे बताओ कि इस दौरान क्या कमंडल का भार बढ़ेगा? शिष्य बोला नहीं। गुरु जी बोले- जब कमंडल का भार नहीं बढ़ेगा तो फिर मेरे हाथ की ऐसी स्थिति कैसे होगी? शिष्य ने जवाब दिया-क्योंकि आप कमंडल को लगातार अपनी हथेली पर रखे रहेंगे। गुरु जी बोले- तो फिर इस स्थिति से बचा कैसे जा सकता है? शिष्य बोला- यह तो बहुत समान्य सी बात है। यदि आप कमंडल को अपनी हथेली से उठाकर नीचे रख देंगे तो फिर कोई समस्या ही नहीं रहेगी।
शिष्य का उत्तर सुनकर गुरु जी ने तत्काल कहा- तो फिर समस्या कहाँ है? तुम्हारी समस्या का भी तो यही हल है जो खुद तुमने अभी मुझे सुझाया है। यानी समस्या को कुछ समय के लिए नज़रअन्दाज़ कर अपना ध्यान कहीं और लगा लो। कुछ समय बाद जब तुम्हारा चित्त शांत हो जाए तो फिर अपनी समस्या का हल खोजने का प्रयत्न करना। ऐसा करने से निश्चित ही तुम्हारी सोचने-समझने की शक्ति जवाब नहीं देगी और तुम अपनी समस्या का समाधान खोजने में सफल हो जाओगे। क्यों, ठीक है ना? ज़ाहिर है शिष्य का उत्तर हाँ में ही होगा। उसे अपने गुरु जी से वास्तव में सही मार्गदर्शन मिला था।
    अकसर हम सभी के साथ ऐसा होता रहता है कि हम किसी छोटी-सी समस्या में ऐसे उलझ जाते हैं कि हमें बाकी कुछ सूझता ही नहीं। लेकिन हम उस शिष्य की तरह ठानकर बैठे रहते हैं कि जब तक इसका हल नहीं होगा, कोई दूसरा काम नहीं करेंगे। यह तरीका ही गलत है। इससे आप न केवल अपना समय बर्बाद करते हैं बल्कि अपनी शक्ति, अपनी ऊर्जा को भी नष्ट करते हैं। इसका सीधा असर आपकी उत्पादकता तथा सृजनशीलता पर पड़ता है जिससे अंततः आपकी कार्यकुशलता प्रभावित होती है। इसका परिणाम यह होता है कि आप सफलता की दौड़ में पिछड़ने लगते हैं।
     यह सही है कि ज़िंदगी चुनौतियों का सामना करने का ही नाम है, लेकिन यहाँ केवल सामना करना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि हम उस चुनौती का सामना किस तरह करते हैं। इसलिए जब भी ऐसी स्थिति आए कि चुनौती समस्या बन जाए और आपको कुछ न सूझे, तो ऐसी स्थिति में उससे उलझने की बजाय उसे बाजू में बैठाकर अपना ध्यान कहीं और केंद्रित कर देना चाहिए। इसके बाद जब तरोताज़ा हो जाएं तो फिर समस्या से दो-दो हाथ कर लें। निश्चित ही आप समस्या को सुलझाने में सफल होंगे। समस्याएं सुलझने के लिए होती है, उनसे उलझने के लिए नहीं।

Monday, July 18, 2016

विनय से बढ़कर कुछ नहीं


     बहुत समय पहले नदी और वायु में घनिष्ठ मित्रता थी। दोनों हिमालय से सागर तक की यात्रा साथ-साथ करते थे। एक बार दोनों सागर के तट पर किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। चर्चा करते-करते अचानक दोनों में विवाद शुरु हो गया। सागर ने जब उनके बीच विवाद होते देखा तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। जाकर देखता हूँ कि झगड़े की जड़ क्या है? ऐसा विचार कर सागर उन दोनों के पास आया और पूछा,"' क्या बात है? क्यों तुम दोनों मूर्खों की तरह झगड़ रहे हो?''
     सागर की बात सुनकर पहले तो दोनों ने उसे प्रणाम किया, फिर नदी बोली-श्रीमान्! अच्छा हुआ आप आ गए। आप हमसे अनुभवी और बड़े हैं। आप ही हमारा विवाद सुलझा सकते हैं। हमारे बीच विवाद शक्ति को लेकर है। मैं कहती हूँ कि मैं वायु से ज्यादा शक्तिशाली हूँ, लेकिन वायु मेरी बात नहीं मान रहा है। अब आप ही बताएं मेरे विकराल रूप का भला कोई सामना कर सकता है? मैं चाहूँ तो सब कुछ बहाकर ले जा सकती हूँ।
     इसके पहले कि सागर कुछ कहता, वायु बीच में ही बोल पड़ा,""किस आधार पर तुम अपने को शक्तिशाली कहती हो। तुम्हारी तो अपनी सीमाएँ हैं। तुम एक निश्चित दायरे में ही अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सकती हो, जबकि मैं तो सर्वव्यापी हूँ। मैं आँधी-तूफान पैदा कर अपने प्रचंड वेग से सारी सृष्टि को तहस-नहस कर सकता हूँ। कोई अज्ञानी भी इस बात का फैसला कर सकता है कि कौन अधिक शक्तिशाली है?
     सागर ने दोनों की बात को ध्यान से सुना और उसे समझते देर नहीं लगी कि इन दोनों को अपनी शक्ति पर अहंकार हो गया है। यदि इनका विवाद अभी सुलझाया नहीं गया तो ये अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर जान-माल को हानि पहुँचाएंगे। वह विचारमग्न हो गया, क्या किया जाए? अचानक उसकी दृष्टि घास पर पड़ी और उसे तुरंत एक उपाय सूझा। वह बोला, ""अधिक शक्तिशाली का निर्णय तो प्रतियोगिता से ही संभव है। क्या तुम उसके लिए तैयार हो?'' इस पर दोनों तत्काल बोले-हाँ-हाँ, हम तैयार हैं। बताएँ हमें क्या करना है।
     सागर बोला-तुम दोनों को मुझे नरम-नरम घास लाकर देनी होगी। विजेता वही होगा जो मुझे घास लाकर देगा। सागर की बात सुनकर उन्हें लगा कि यह तो बहुत आसान काम है। पहले नदी की बारी आई। वह सागर के लिए नरम घास लेने निकल पड़ी। उसने घास को देखते ही अपनी गति बढ़ा दी। लेकिन जैसे ही नदी की लहर घास के नज़दीक आई, घास ने झुककर उसे अपने ऊपर से निकल जाने दिया। फिर क्या था, दोनों के बीच जैसे मुकाबला शुरु हो गया हो। नदी जितना बेग बढ़ाती, घास उतना ही झुक जाती। अंततः नदी थक-हारकर खाली हाथ ही लौट आई।
            अब वायु की बारी थी। वायु ने नदी की हालत देखकर पहले ही अपना वेग तेज़ कर दिया। उसकी गति किसी भी तेज़ आँधी-तूफान से ज्यादा थी। बड़े-बड़े पेड़-पौधे उखड़कर गिरने लगे, लेकिन जैसे ही वह घास के पास पहुँचा, घास झुक गई और वायु का झोंका उसके ऊपर से गुज़र गया। इस तरह अनेक प्रयत्नों के बाद भी उसे सफलता नहीं मिली। वायु भी नदी की तरह पराजित होकर वापस आ गया।
     अब दोनों हारे हुए खिलाड़ी की तरह सागर के सामने सिर झुकाए खड़े थे। उन्हें देखकर सागर बोला-देखा, तुम तो कितनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे। एक नरम घास ने ही तुम्हारे सिर झुका दिए। ऐसा लग रहा है, जैसे तुम उसकी विनम्रता के आगे नतमस्तक हो। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अब शक्तिहीन हो गए हो। तुम दोनों अभी भी शक्तिशाली हो। बस कमी थी तो विनम्रता की और अब वह तुम्हारे अंदर दिखाई पड़ रही है। सागर की बात सुनकर दोनों उसके कदमों में झुक गए और बोले- आज से आप हमारे गुरु हैं। सागर बोला, नहीं, मैं नहीं, यह घास तुम्हारी गुरु है, जिसने गुरुर तोड़कर तुम्हें सही अर्थों में शक्तिवान बनाया है।
     सही कहा सागर ने, विनय के आगे सब झुकते हैं। एक योग्य व्यक्ति जो समर्थ और साधन संपन्न होते हुए भी अहंकारी नहीं होता है वही सही मायनों में विनम्र या विनयशील होता है। इस गुण से आप सभी के चहेते बनते हैं। प्रबंधन ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में यह उपयोगी है। यह वह गुण है, जो जीवन में आने वाली सभी बाधाओं का सामना करने की शक्ति देता है। कुछ लोग विनम्रता को कमज़ोरी मानते हैं, जबकि यह तो महानता का लक्षण है। झुकते वही हैं, जिनके पास कुछ होता है। इस संबंध में अकसर उदाहरण दिया भी जाता है फल से लदे वृक्षों का। यह सही भी है। आज के जमाने में अगर अकड़ दिखाओगे तो टिक नहीं पाओगे। जो अपने सहयोगियोंं पर रौब दिखाता है, वह दिल नहीं जीत पाता। इसलिए लोगों के बीच यदि अपनी जगह बनानी है यानी आप सुपात्र बनना चाहते हो तो विनयशील बनो। क्योंंकि विनय से ही पात्रता को प्राप्त किया जा सकता है।
     हम किसी भी आयु के हों, नम्रता का गुण हमारे अंदर सदैव रहना चाहिए। क्योंकि बड़ों के प्रति यह हमारा "कत्र्तव्य' है, हम उम्रों के प्रति "विनीत' का सूचक और छोटों के प्रति "शालीनता' का परिचायक है। विनयशीलता ऐसा गुण है जिसमें सुरक्षा के साथ ही सफलता भी निहित है। इसलिए जीवन हो या कैरियर, अपनी सुरक्षा चाहते हो तो विनय को साथ लेकर चलो। अतः आज का मंत्र है- ' विनम्र बनो' क्योंकि इससे बढ़कर दूसरा गुण नहीं।

Wednesday, July 13, 2016

महत्वहीन भी हो सकता है महत्वपूर्ण


     एक गाँव में एक गरीब वृद्ध अपने इकलौते बेटे के साथ रहता था। उसके पास एक अरबी घोड़ा था। अपनी गरीबी के बावजूद वह उस घोड़े की बहुत देखभाल करता था। एक बार गाँव से होकर गुज़र रहे राजा को वह घोड़ा पसंद आ गया। उसने अपने मंत्री को सौदा करने के लिए वृद्ध के पास भेजा लेकिन वृद्ध ने उसे इनकार कर दिया।
     वृद्ध के दोस्तों को यह बात पता चलने पर वे उससे बोले-ऐसा मौका किस्मत वालों को ही मिलता है, लेकिन तू बड़ा बदकिस्मत निकला। तुझे ऊँचे दाम बताकर सौदा कर लेना था। इससे तेरी गरीबी हमेशा के लिए दूर हो जाती। आखिर यह घोड़ा तेरे क्या काम आएगा। उनकी बात सुनकर वृद्ध मुस्कराते हुए बोला-जल्दी नतीजे पर मत पहुंचो। बस देखते जाओ।
     बात आई गई हो गई। कुछ समय बाद एक दिन सुबह उठने पर वृद्ध को घोड़ा अपनी जगह पर नहीं मिला। बात फैली तो दोस्तों को उसे फिर बदकिस्मत ठहराने का मौका मिल गया। वृद्ध ने उन्हें फिर जल्दबाज़ी में नतीजे पर न पहुंचने की सलाह दी। दो दिन बाद घोड़ा घर वापस लौट आया। उसके साथ एक दर्जन ह्मष्ट-पुष्ट घोड़े थे, जो जंगल से उसके साथ आ गए थे। वृद्ध के दोस्त इस बार उसे किस्मत का धनी बताने लगे, क्योंकि अब वह उन घोड़ों को बेचकर खूब धन कमा सकता था। वृद्ध ने इस बार भी उन्हें धैर्य रखने को कहा। कुछ दिन बाद घोड़े से गिरकर वृद्ध के लड़के की एक टाँग टूट गई और वह लँगड़ा हो गया। दोस्त वृद्ध को सांत्वना देते हुए बोले-तू सही कहता था। हम नतीजे पर जल्दी पहुंच जाते हैं। तेरे बुढ़ापे का सहारा ही अपाहिज हो गया। वाकई तेरी किस्मत खराब है। वृद्ध ने एक बार फिर उन्हें अंतिम निर्णय लेने से बचने को कहा।
     कुछ समय बाद उनके राजा ने पड़ोसी देश पर आक्रमण कर दिया। राजा ने युद्ध के लिए राज्य के सभी युवकों को सेना में भर्ती करने का आदेश दे दिया। गाँव के सारे युवकों को भी युद्ध के लिए जाना पड़ा। उस वृद्ध का इकलौता बेटा अपाहिज होने के कारण वहीं रह गया। दोस्त फिर इकट्ठे हुए और वृद्ध से कहने लगे कि वाकई तू सही कहता था। तू किस्मत का धनी है। तेरा बेटा जैसा भी है, तेरे साथ तो है।
     दोस्तो, कहते हैं कि व्यक्ति को जल्द ही किसी नतीजे पर नहीं पहुँचना चाहिए। क्योंकि आज वे जिस बात को अंतिम मानकर चल रहे हैं, हो सकता है कल वह गलत साबित हो। इसी को कहते हैं किस्मत जो रोज नए रूप दिखाती है। आज जिस बात या घटना को बदकिस्मती माना जा रहा है, कल वही सौभाग्य के रूप में नज़र आ सकती है। इसलिए किसी भी स्थिति में यह मत सोचो कि जो कुछ होना था हो गया, अब कुछ नहीं हो सकता। नहीं, यह नकारात्मक नज़रिया है। और यही आपको मज़बूर करता है कि आप जल्दी ही अंतिम नतीजे पर पहुंच जाएँ। इसलिए सबसे पहले अपने नज़रियें को बदले, उसे सकारात्मक बनाएँ। तब आप परिस्थितयों को धूप-छाँव का खेल मानकर किसी भी विपरीत या अनुकूल स्थिति में अपना संतुलन बनाए रखेंगे।
     कहा भी गया है कि कुछ भी स्थायी नही होता। इसलिए यदि आपको लगता है कि परिस्थितियाँ आपका साथ नहीं दे रही हैं, आपको अपना सब कुछ लुटता-डूबता नज़र आता है, तो ऐसे में भी सकारात्मक रूख अपनाते हुए धैर्यपूर्वक अपना काम जारी रखें। कुछ समय के बाद आपको लगेगा कि आप बेकार ही परेशान हो रहे थे। आप जिस नतीजे पर पहुँचे थे, वह गलत था। आप जिस अच्छे दौर को बीता हुआ मान रहे थे, उससे अच्छा समय तो अब आया है। अब आप बहुत कुछ कर सकते हैं, करके दिखा सकते हैं।
     दूसरी ओर, कुछ लोग अपने मामले में तो धैर्य रखते हैं, लेकिन दूसरे के मामले में जल्दबाजी दिखाते हैं। ऐसें लोगो से हम कहना चाहेंगे कि हमेशा सोच-समझकर, हर पहलू पर विचार करके ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचें। जैसै कोई व्यक्ति फीनिक्स पक्षी को राख बनते देख ले तो वह उसकी कहानी को खत्म हुआ मान लेगा, लेकिन वही पक्षी राख के ढेर से दोबारा पैदा होकर आसमान की ऊँचाईयाँ नापने लगता है। कहीं ऐसा न हो कि आज आप जिसे महत्वहीन या सर्वाधिक महत्वपूर्ण समझने लगे हैं। उसके बारे में कल आपको अपना निर्णय बदलना पड़े।
       चलिए बताइए, शीर्षक पढकर आप किस नतीजे पर पहुँचे, जल्दबाजी न करें। आराम से सोचें। इसमें दोनो ही स्थितियाँ छुपी हैं।

Monday, July 4, 2016

जग जगेगा जभी जब आप जाओगे जग!


     युद्ध में रावण को हर तरफ से मुँह की खानी पड़ रही थी। अन्ततः उसने सेवकों को बुलाकर आदेश दिया कि वे कैसे भी कुंभकर्ण को जगाकर लाएँ। कुंभकर्ण को ब्राहृाजी से वरदान मिला था कि वह लगातार छः माह सोने के बाद एक दिन के लिए जागेगा। दरअसल कुंभकर्ण ब्राहृा जी से इंद्रासन माँगना चहता था, लेकिन वर माँगते समय देवी सरस्वती ने उसकी जीभ को प्रभावित कर दिया था और वह इंद्रासन की बजाय निंद्रासन बोल गया। इधर रावण के सेवक ढोल-नगाड़े लेकर कुंभकर्ण के शयनकक्ष में पहुँचे और जोर-जोर से बजाना शुरु कर दिया। लेकिन कुंभकर्ण पर इसका कोई असर नहीं हुआ। तब उसके शरीर पर पानी उड़ेला गया, कान में शंख फूँके गए, उसके ऊपर से हाथियों को गुज़ारा गया, बड़ी-बड़ी शिलाएँ, वृक्ष उस पर फेंके गए ताकि वह जागे, लेकिन कुंभकर्ण टस से मस नहीं हुआ। जब सारे उपाय व्यर्थ चले गए तब गरमा-गरम पकवान बनाकर शयनकक्ष में लाए गए। उनकी गंध से कुंभकर्ण उठ बैठा। भोजन के बाद जब वह रावण से मिलने पहुँचा तो रावण ने सारी बात बताकर उसे राम से युद्ध करने का आदेश दिया। राम के बारे में सुनते ही कुंभकर्ण समझ गया कि निश्चित ही वे विष्णु के अवतार हैं। वरना रावण का मुकाबला तीनों लोकों में और कोई नहीं कर सकता था। उसने राम के बारे में बताकर रावण से युद्ध न करने का अनुरोध किया, लेकिन रावण नहीं माना। बाद में बड़े भाई के कहने पर कुंभकर्ण युद्धभूमि की ओर चल दिया।
     दोस्तो, उसके बाद रणभूमि में क्या हआ यह हम जानते ही हैं। यहाँ यह बात गौर करने लायक है कि कुंभकर्ण जाग गया था तभी वह राम को पहचान पाया। परंतु रावण तो जागकर भी सोया हुआ था। तभी न तो राम को वह खुद पहचान पाया और न ही किसी दूसरे के बताने पर उसने जानने की कोशिश की। अन्ततः उसका यही जागते हुए भी सोते रहना पूरे परिवार के विनाश का कारण बना। ऐसी गलती केवल रावण ने ही नहीं की थी। हममे से बहुत से लोग भी करते हैं, जो कि जागते हुए भी सोते रहते हैं और इसका नुकसान भी उठाते हैं। हम बेकार में ही कुंभकर्ण को कोसते रहते हैं कि वह हमेशा सोता रहता था। दरअसल सोए हुए तो हम खुद ही हैं। वह तो फिर भी छः माह में एक बार जाग जाता था लेकिन हम तो जागकर भी वर्षों से सोए हुए हैं। इसलिए जागो!
     अब सवाल उठता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि आदमी जागते हुए भी सोता रहे? ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि हम उठने और जागने में फर्क ही नहीं समझते। कहा गया है कि "उत्तिष्ठित जागृत प्राप्यवरान् निबोधत'। इस श्रुति से पता चलता है कि व्यक्ति पहले उठता है और फिर जागता है। यानी उठना एक प्रक्रिया है और जगना दूसरी। हममें से बहुत से लोग रोज सुबह उठ तो जाते हैं लेकिन जागते नहीं हैं। तभी हम बहुत कुछ गलत कर जाते हैं। अब गलतियँा तो सोया हुआ व्यक्ति ही कर सकता है जागा हुआ नहीं। अकसर हमसे होने वाली गलतियाँ एबसेंट मार्इंडनेस का परिणाम होती हैं। यानी आपका मन काम के वक्त कहीं ओर विचरण कर रहा होता है। यह स्थिति भी तो नींद का ही एक रूप है। इसलिए ज़रूरी है कि हम न सिर्फ उठें बल्कि जागें भी। आपकी किस्मत भी तभी खुलेगी जब आप जो कर रहे हो उसे पूरे होशो-हवास में अच्छे-बुरे परिणामों का आंकलन करके कर रहे हो। इसके लिए ज़रूरी है जागृत रहना। इसलिए जागो! क्योंकि परमात्मा तो तभी जागेगा न जब आप खुद जागेंगे, आपकी आत्मा जागेगी। आखिर आत्मा का परमात्मा से सीधा संबंध जो है। हम आपको जागृति का संदेश देना चाहते हैं। जिससे आप सही अर्थों में जागें तभी जग जागेगा, जग जागेगा तो फिर जगदीश भी जाग जाएँगे। इसलिए जागो!
     अंत में, आपसे आग्रह है कि आप भी आज किसी सोए को उठाएँ, उठे हुए को जगाएँ, जागे हुए को खड़ा करें और खड़े हुए को दौड़ाएँ। तो आज से गाएँ नया गाना कि सोते हुए को है जगाना। इसलिए जागो और जगाओ।

Saturday, July 2, 2016

नहीं करोगे काम तो नहीं कर पाओगे काम


     जापान के एक आश्रम में रहने वाले जेन आचार्य ह्राकूजो की आयु अस्सी वर्ष से अधिक हो चुकी थी, लेकिन इसके बाद भी वे अपने शिष्यों के साथ आश्रम के बाग में बराबरी से मेहनत करते थे। उन्हें ऐसा करते देख शिष्यों को अच्छा नहीं लगता था। वे आचार्य को कहते भी थे कि हमारे रहते हुए आपको इतना कठोर परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है। लेकिन आचार्य उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते थे। एक बार सभी शिष्यों ने मिलकर फैसला किया कि किसी न किसी तरीके से हमें आचार्य से काम करना छुड़वाना पड़ेगा।
     आचार्य को काम करने से रोकने के लिए एक दिन शिष्यों ने उनके औजार छिपा दिए। अगले दिन आचार्य ने औजार न मिलने पर यह अनुमान लगा लिया कि यह काम किसने और क्यों किया होगा। इसके बाद वे बिना कुछ कहे एक पेड़ के नीचे बैठकर ध्यान करने लगे। उन्हें ऐसा करते देख शिष्य खुश हो गए। रात में भोजन के समय सभी शिष्य भोजनकक्ष में एकत्रित हो गए, लेकिन आचार्य नहीं आए। शिष्यों ने सोचा कि शायद उनकी तबीयत खराब होगी। इस प्रकार दो दिन और बीत गए। शिष्यों को समझ में आ गया कि आचार्य उनसे औजार छिपा देने के कारण नाराज़ हैं। उन्होने वापस औजार वहीं रख दिए जहाँ आचार्य रखते थे। अगले दिन आचार्य ने पहले की तरह दिनभर काम किया और रात को भोजन कक्ष में पहुँच गए। उन्हें देखकर एक शिष्य बोला-आचार्यजी, आप तीन दिन तक यहाँ क्यों नहीं आए? आचार्य ने जवाब दिया। इसलिए कि काम नहीं तो भोजन भी नहीं।
     दोस्तो, कितनी अच्छी बात है कि काम नहीं तो भोजन भी नहीं। हम सभी को इस बात को आत्मसात कर लेना चाहिए, क्योंकि सफलता का असली मंत्र ही यही है। किसी ने कहा है कि जो श्रम नहीं करना चाहता वह कामचोर ही हुआ न। ऐसे व्यक्ति को चोर कहना ही चाहिए और ऐसे में वो जो खा रहा है, वह चोरी-का ही माल हुआ न। यदि आप चोर नहीं कहलाना चाहते तो कभी परिश्रम से न भागें। जब भी, जहाँ भी, जैसे भी काम करने का मौका मिले, उसे खुशी-खुशी अंजाम दें। क्योंकि आप भाग्यशाली हैं जो आपको काम मिला है या मिला हुआ है वरना बहुत से लोग तो काम की तलाश में दर-दर की ठोकरें खाते रहते हैं। ऐसे में यदि आप कामचोरी करेंगे तो ज्यादा दिन काम पर टिक नहीं पाएँगे और काम की तलाश करने वालों में आपकी भी गिनती शुरू हो जाएगी। यह बात हर स्तर के व्यक्ति के लिए लागू होती है।
     इसके साथ ही कुछ लोग बहुत परिश्रम करने के बाद जब एक मुकाम हासिल कर लेते हैं तो उन्हे लगता है कि अब हमें काम करना छोड़ देना चाहिए। अब तो समय है काम करवाने का। तो वे अपने अधीनस्थों को तो जोतते रहते हैं, लेकिन खुद आराम से बैठते हैं। ऐसे लोग दरअसल अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं, क्योंकि ऐसा करके ये हर तरह से घाटे में रहते हैं। काम नहीं करने से इनके शरीर में आलस बढ़ता है और ये मुख्यधारा से कट जाते हैं। इन्हें काम न करता देख इनके अधीनस्थ भी इनकी तरह व्यवहार करने लगते हैं। इससे जिस काम को कराने की ज़िम्मेदारी इनकी होती है, वह समय पर पूरा नहीं हो पाता जिससे इनकी छवि को नुकसान पहुँचता है। इसलिए यदि आपको अपने लोगों से काम करवाना है तो आपको उनके साथ बराबरी से काम करना पड़ेगा। तभी वे भी उत्साह से काम करेंगे। कुछ लोगों को शिकायत रहती है कि हम बहुत काम करते हैं उसका फल यह मिलता है कि हम पर और काम लाद दिया जाता है। ऐसे लोगों से हम कहना चाहेंगे कि काम उन्हें ही दिया जाता है जो कर सकते हैं।
     दूसरी ओर, अधिक आयु वाला जो व्यक्ति कर्मशील होता है, उसे काम करने से रोकना नहीं चाहिए। क्योंकि उसके लिए कर्म ही पूजा होती है और यदि आप उसे यह समझकर काम करने से रोकेंगे कि अब इन्हें काम नहीं आराम करना चाहिए तो आपकी यह सद्भावना उनके लिए नुकसानदायक ही साबित होगी। काम ही तो इनकी शक्ति होती है, ऊर्जा होती है जो इन्हें चलाती है। यदि आप इन्हें अलग करेंगे तो इनके अंदर ऊर्जा ही नहीं बचेगी और फिर ये ठीक से आराम भी नहीं कर पाएँगे, न ही दूसरों को करने देंगे। इसलिए ऐसे लोगों को जो वे कर रहे हैं, करने देना चाहिए ताकि वे अपने काम में मस्त रहें।