Monday, June 6, 2016

अँगूठा लगाओगे तो लोग दिखा देंगे अँगूठा



निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या सीखने के लिए हस्तिनापुर आया। द्रोणाचार्य ने उसे शिक्षा देने से मना कर दिया, क्योंकि वे राजकुमारों के साथ निषाद कुमार को शिक्षा नहीं दे सकते थे। लेकिन एकलव्य ने तो ठान लिया था कि वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनकर रहेगा। उसने वन में जाकर द्रोंणाचार्य की प्रतिमा बनाई और पूजन करने के बाद खुद ही धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। लगन और नियमित अभ्यास से वह शीघ्र ही इसमें निपुण हो गया।
     एक दिन कौरव-पांडव शिकार खेलने के लिए वन में आये। उनके साथ एक कुत्ता भी था। कुत्ता भटकता हुआ उस जगह पहुँच गया जहाँ एकलव्य अभ्यास कर रहा था। कुत्ते ने उसे देखकर भौंकना शुरू कर दिया। इससे अभ्यास में बाधा पड़ते देख एकलव्य ने कुत्ते का मुँह बाणों से भर दिया। कुत्ता भागकर राजकुमारों के पास पहुँचा। उसे देखकर सब हैरान रह गए, क्योंकि कुत्ते के मुँह में कहीं भी चोट का निशान नहीं था। वे बाण चलाने वाले को खोजते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। अर्जुन बोले-तुम कौन हो और तुम्हारे गुरू का नाम क्या है? इस पर एकलव्य ने अपना नाम बताते हुए द्रोण को अपना गुरू बताया। राजकुमारों ने यह बात आचार्य को बताई। अर्जुन बोले- गुरूदेव आपने कहा था कि मुझे पृथ्वी पर सबसे बड़ा धनुर्धर बना देंगे, लेकिन एकलव्य तो मुझसे भी श्रेष्ठ है। यह सुनकर द्रोण उन्हें साथ लेकर एकलव्य के पास पहुँचे। एकलव्य ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। द्रोण-उठो वत्स, यदि तुम मुझे अपना गुरू मानते हो तो गुरू दक्षिणा भी दो। एकलव्य-आज्ञा कीजिए। द्रोण-तुम अपने दाहिने हाथ का अँगूठा मुझे दे दो। इस पर उसने हँसते-हँसते अपना अँगुठा गुरू को भेंट किया।
     दोस्तो, यह पराकाष्ठा है गुरूभक्ति की। एकलव्य ने सिखा दिया कि यदि आपने कुछ करने की ठान ली है तो फिर कोई भी बाधा आपको नहीं रोक सकती। एकलव्य जैसी लगन हर उस व्यक्ति में होनी चाहिए जो सफल होना चाहता है। वैसे सफलता के झंडे गाड़ने वालों की आज भी कमी नहीं है। अब देखिए न कोचिंग के बढ़ते दौर में भी छोटे-छोटे शहरों से मेरिट में आने वाले बच्चों को आप क्या कहेंगे, जो कि कोचिंग लेने की सोच ही नहीं सकते। जब वे खुद के बूते पढ़कर मेरिट में आते हैं तो निश्चित ही उनके भीतर भी एकलव्य जैसी ही लगन होगी। ऐसी ही धुन और अभ्यास के सहारे आप भी अपने क्षेत्र में निपुणता हासिल कर सकते हैं।
     यहाँ सीखने के लिए एक दूसरा पहलू भी है। वह यह कि यदि सामने वाला दूषित सोच से आपसे कुछ करने को कह रहा है तो बिना सोचे-समझे वह काम न करने लग जाएँ। फिर भले ही वह कितना ही महत्वपूर्ण व्यक्ति क्यों न हो। वरना द्रोण की तरह अँगूठा माँगने वालो की आज भी कोई कमी नहीं है। रोज न जाने कितने अँगूठा छाप इनकी बातों में आकर अपना सर्वस्व लुटा देते हैं। यहाँ अँगूठा छाप से तात्पर्य निरक्षर या अनपढ़ व्यक्ति से है।
     एक जो व्यक्ति साक्षर नहीं है, वह तो सामने वाले पर भरोसा करके किसी भी कागज पर अपना अँगूठा लगा देता है। अब यह भी तो एक तरह से अँगूठा माँगना ही हुआ न। कई मामलों में तो अँगूठा लगाने वालें को अहसास ही नहीं होता कि वे अँगूठा लगाकर अपनी ही किस्मत को अँगूठा दिखा रहे हैं। सामने वाला अँगूठा लगवाकर उन्हें ही अँगूठा दिखा देता है। इसलिए जरूरी है कि किसी पर भी आँख मूँदकर विश्वास करने से पहले उसे परखा जाए।
     वैसे भी दुनियाँ में जाहिल होने से बड़ा कोई गुनाह नहीं है। यह गुनाह व्यक्ति स्वयं अपने साथ करता है। दूसरी ओर निरक्षर को साक्षर बनाने से बढकर कोई समाजसेवा नहीं हो सकती। देश और समाज की प्रगती के लिए जरूरी है कि कोई भी निरक्षर न रहे। किसी के लिए भी काला अक्षर भैंस बराबर न हो। आपसे अनुरोध है कि आप भी ऋषि बनकर ऐसे व्यक्तियों को पढ़ाँए या पढ़ने की व्यवस्था करें जो अनपढ़ हैं। समाज के लिए यह आपका बहुत बड़ा योगदान होगा। ऐसा करके आपको खुशी भी मिलेगी।

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