Thursday, June 23, 2016

चरित्र से ही मिलता है सम्मान


     महाभारत युद्ध का एक प्रंसग है। इस भीषण धर्मयुद्ध के दसवें दिन भीष्म पितामह के शक्तिहीन होकर गिरने के पश्चात द्रोण को कौरव सेना का सेनापति बनाया गया। द्रोण ने उस दिन युद्ध आरंभ होते ही पांडव सेना को नष्ट करना शुरु कर दिया। गुरु के आगे कौेन टिक सकता है? अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर कोई नहीं टिक पाया। द्रोणाचार्य भयंकर विनाशलीला मचा रहे थे। मध्याह्न होने तक अनेक योद्धा खेत रहे। पांडवों को चिंता होने लगी। यदि इसी प्रकार चलता रहा तो शाम होते-होते तो पांडव सेना में शायद ही कोई जीवित बचे। सभी स्थिति से निपटने का रास्ता सोचने लगे। कृष्ण बोले-एक ही रास्ता है, यदि द्रोणाचार्य किसी युक्ति से अपने शस्त्र छोड़ दें। शस्त्र छोड़ने का उपाय भी उन्होने ही सुझाया। यदि कोई जाकर उन्हें यह कह दे कि उनका पुत्र अश्वत्थामा मारा गया है तो वे अपने पुत्र वियोग में निश्चित ही शस्त्र त्याग देंगे।
     अब नई समस्या खड़ी हो गई। यह बोलेगा कौन? युधिष्ठिर बोले-गुरु से शस्त्र त्याग कराने का यह उपाय शास्त्रोक्त नहीं है, यह अधर्म है। कृष्ण बोले- है तो अधर्म किंतु प्रश्न तो विजय का है। यदि तुम विजय चाहते हो तो ऐसा करना ही पड़ेगा। युधिष्ठिर इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस पर भीम ने कहा-आप विचार करते रहो। मैं ही कुछ करता हूँ। ऐसा कहकर वे मालवराज की टुकड़ी की ओर बढ़ गए। मालवराज की टुकड़ी में अश्वत्थामा नाम का एक हाथी था। भीम ने एक ही प्रहार से उस हाथी का बध कर दिया और शोर मचाने लगे- अश्वत्थामा मारा गया!अश्वत्थामा मारा गया!
     भीम की आवाज़ द्रोणाचार्य के कानों तक पहुँची। उन्होने तुरंत पूछा-कौन कहता है? उन्हें बताया गया कि भीम कह रहा है। यह सुनकर द्रोण बोले- भीम तो झूठा है। उसकी बात का विश्वास नहीं किया जा सकता। वह निश्चित ही मेरे शस्त्र छुड़वाने के लिए ऐसा कह रहा है। अब मुझे कोई नहीं रोक सकता। मैं आज शाम तक ही इस युद्ध का अंत कर दूँगा। और उन्होने अधिक तीव्रता से हमले शुरु कर दिए। लेकिन कहते हैं कि एक बार मन में ऐसी कोई बात आ जाए तो आशंका होने ही लगती है। द्रोण को यह बात परेशान करने लगी। वे सोचने लगे कि ऐसा हो सकता है। आखिर युद्ध का मामला है। क्या किया जाए? अचानक उन्हें विचार आया कि युधिष्ठिर से पूछता हूँ। वह कभी असत्य नहीं बोलेगा। सत्य के लिए तो वह तीनों लोकों के सुख को दाँव पर लगा सकता है। उन्होने रथ युधिष्ठिर की ओर मोड़ दिया और उसके निकट जाकर बोले-पुत्र युधिष्ठिर! भीम कहता है कि अश्वत्थामा मारा गया, क्या यह सच है?
     तब तक कृष्ण युधिष्ठिर को समझा चुके थे कि उन्हें क्या और कैसे कहना है। लेकिन फिर भी कुछ कहने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी। जब गुरुदेव ने दोबारा पूछा तो युधिष्ठिर ने कंपकंपाती आवाज़ में कहा, "अश्वत्थामा हतः।' और उसके बाद धीरे से बोले "नरो वा कुंजरो वा।' यानी अश्वत्थामा मारा गया, आदमी नहीं हाथी। द्रोण आधी बात ही सुन पाए और उन्होने अपने शस्त्र त्याग दिए। महाभारत की यह घटना हमारे लिए नई नहीं है। इस घटना के माध्यम से हम जीवन के उस पहलू की चर्चा करेंगे, जो हम सभी की प्रगति के लिए बहुत आवश्यक है। वह पहलू है  हमारा चरित्र, हमारी छवि।
     हम गौर करें कि भीम के पास युधिष्ठिर की तुलना में किस चीज़ की कमी थी। दोनों सहोदर थे, वीर थे, विद्वान थे, दोनों की पृष्ठभूमि एक थी, उनका लालन-पालन एक जैसे वातावरण में हुआ था, यहाँ तक कि उनके गुरु भी एक ही थे। फिर ऐसी कौन सी बात थी कि द्रोणाचार्य भीम की बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं हुए। लेकिन युधिष्ठिर के मुँह से वही बात सुनने के बाद उन्होने दूसरी बार सोचा तक नहीं। वह बात थी दोनों की छवि या चरित्र में अंतर। बाल्यावस्था से ही युधिष्ठिर ने अपनी सत्यवादी छवि को बनाए रखा था। द्रोण ने उनकी बात का विश्वास इसी छवि के करण किया था, जबकि भीम कि छवि इसके उलट थी। यानी व्यक्ति की सफलता में उसकी छवि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। यह छवि बनती है उसके चरित्र के किसी विशेष गुण से। जैसे कि कोई सत्यवादी होता है कोई न्यायप्रिय होता है, कोई दानवीर होता है। मतलब यह कि हमारे अंदर व्यक्तित्व के सभी श्रेष्ठ गुण तो होने ही चाहिए साथ ही किसी विशेष गुण को हमें अवश्य अपने चरित्र से जोड़ लेना चाहिए। कहते हैं कि एक को साधने पर सब सध जाते हैं। यह बात ईश्वर के संबंध में कही गई है, लेकिन यह गुणों के संबंध में भी लागू हो सकती है। एक गुण को साध लो, बाकी सभी सद्गुण स्वतः ही आपके हो जाएँगे। चरित्र धन से भी श्रेष्ठ संपत्ति है। चरित्र नहीं खरी़दा जा सकता। यह सफलता के साथ-साथ सम्मान भी दिलवाता है। यही कारण है कि कई लोग सफल तो हो जाते हैं, लेकिन चरित्र के अभाव में सम्मान के लिए आजीवन तरसते रहते हैं। इसलिए व्यक्ति का चरित्रवान होना आवश्यक है। सफलता की चाह रखने वाले हर व्यक्ति को तो अपने चरित्र पर युधिष्ठिर की ही तरह दृढ़ रहना चाहिए तभी उसे सफलता और सम्मान दोनों मिलेंगे।

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