Wednesday, June 1, 2016

जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन


     एक जंगल में बहुत ही ज्ञानी और तपस्वी संत रहते थे। धन व माया से उन्हें बिलकुल मोह नहीं था। जो भी उनके दर्शन करता, उसे बहुत शांति मिलती। एक बार उस राज्य का राजा उनसे मिलने आया। उनके कष्टप्रद रहन-सहन को देखकर राजा ने बड़ी ही विनम्रता से उनसे अपने महल में चलकर रहने का आग्रह किया। संत ने पहले तो बहुत मना किया, लेकिन राजा के अत्यधिक आग्रह को वे टाल नहीं पाए और उनके साथ चले गए। राजा ने महल के सबसे अच्छे कमरे में उनके ठहरने की व्यवस्था कर दी। उनकी सेवा के लिए नौकर-चाकर भी नियुक्त कर दिए गए। रोज नए-नए पकवान उन्हें खाने को मिलते। धीरे-धीरे अपने जीवन में आया परिवर्तन उन्हें रास आने लगा। राजा-रानी प्रतिदिन उनके पास आकर सत्संग का लाभ उठाते। इस तरह कई महीने बीत गए।
     एक दिन रानी स्नानागार से नहाकर लौटते समय अपना हार वहीं भूल आर्इं। रानी के बाद संत वहाँ नहाने पहुंचे। वहाँ रखे हार को देखकर उनकी नीयत डोल गई। उन्होंने उसे अपने कपड़ों में छिपा लिया और स्नान के बाद उसे लेकर बाहर आ गए। जब वे अपने कमरे की तरफ बढ़ रहे थे तो उनके मन में विचार आया कि कमरे में कहाँ जाता है। नौलखा हार है, इसे लेकर भाग जा। कोई तुझ पर शक भी नहीं करेगा और किसी दूसरे राज्य में जाकर इसके सहारे सुखमय जीवन व्यतीत करना। ऐसा विचार मन में आते ही वह संत तुरंत महल से निकल जंगल में चले गए।
     इस बीच रानी को ध्यान आया कि वे हार स्नानागार में भूल आई है। उन्होने दासी को हार लेने के लिए भेजा, लेकिन हार वहाँ हो तो मिले। हार तो पार हो चुका था। तुरंत तलाश प्रारंभ हुई। सभी जगह तलाशा गया, लेकिन हार नहीं मिला। राजा को स्नानागार के द्वारपालों से पता चला कि रानी के बाद वहां नहाने के लिए संत गए थे। राजा उनसे मिलने पहुँचे। लेकिन संत वहाँ नहीं मिले। राजा को यकीन हो गया कि हो न हो, यह काम महात्मा जी का ही है। उनकी खोज में चारों ओर सैनिक दौड़ाए गए।
     उधर संत जंगल में चलते-चलते थक गए। वे जल्दी-जल्दी उस राज्य की सीमा से बाहर निकल जाना चाहते थे, लेकिन उनके पाँव थे कि साथ ही नहीं दे रहे थे। ऊपर से उन्हें भूख भी सताने लगी। सुबह से उन्होने कुछ नहीं खाया था। तभी उनकी नज़र फलों से लदे एक वृक्ष पर पड़ी। उन्होने कई फल तोड़कर खा लिए। वे फल दस्तावर थे, जिन्हें औषधि के रूप में काम में लाया जाता था। फल खाते ही साधू को भी दस्त लग गए। इतने दस्त हुए कि उनका पिछले की महीनों का खाया-पीया बाहर हो गया। वह निढ़ाल होकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। इतने में उनका हाथ कपड़ों में छिपे हार पर पड़ा। वे सोचने लगे- यह हार मेरे पास क्यों है? तभी उन्हें सारी बात याद आई। वे आत्मग्लानि से ग्रसित हो गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे चोरी भी कर सकते हैं। वे तुरंत उठकर राजा के पास पहुँचे। राजा को हार सौंपते हुए बोले-राजन्! यह रहा आपका हार। मैं इसे चुराकर ले गया था। इस पर राजा आश्चर्य से बोला-जब वापस ही करना था तो चुराया क्यों? संत बोले-राजन! आपके अन्न में ही गड़बड़ है। इसे खाकर ही मेरी मति भ्रष्ट हो गई और मैं हार चुराकर ले गया। पता करवाएँ कि आपका रसोइया खाना बनाते समय क्या सोचता है? राजा ने रसोइए को बुलाकर डाँटते हुए संत के कहे अऩुसार उससे पूछा। रसोइया डरते हुए बोला-महाराज, मेरी चोरी करने की आदत है और खाना बनाते समय भी मेरे मन में चोरी के विचार आते रहते हैं। इस पर संत बोले-लीजिए महाराज, पता चल गया कि मेरे विचार दूषित कैसे हुए। राजा बोले-जी मैं कुछ समझा नहीं। संत बोले-खाना बनाते समय रसोइए के मन में आने वाले चोरी आदि के नकारात्मक विचारों का असर भोजन के माध्यम से मुझ पर पड़ा। चूँकि मेरे विचार शुद्ध थे, इसलिए इतना समय लग गया, अन्यथा मैं पहले ही चोरी कर लेता।
     क्या अनोखी बात है। यह अविश्वसनीय लगती है, लेकिन ऐसा होता है। यह बात कई शोधों से साबित हो चुकी है कि भोजन पकाते समय पकाने वाले के मन में उठ रहे विचारों, उसकी मनःस्थिति का असर भोजन पर भी होता है। यही कारण है कि कई बार हम अनुभव करते हैं कि सब कुछ तो अच्छा है, फिर क्या बात है कि मन विचलित व व्यथित है। ऐसा इसलिए होता है कि उस दिन घर में भोजन पकाने वाली आपकी मां या पत्नी किसी बात पर निश्चित ही परेशान होगी, जिसका असर आप पर हो रहा है। इसलिए तो कहा जाता है- खाना बनाते समय अपने मन के भावों को शुद्ध रखना चाहिए। अच्छी-अच्छी बातें सोचनी चाहिए, जिससे कि भोजन करने वाले तक भी सच्ची और सकारात्मक बातें पहुँचे।
     कहते हैं कि आप जैसा खाते हैं, वैसा ही व्यवहार करते हैं। अगर आपका आहार शुद्ध है, पवित्र है तो आपकी आत्मा, आपकी काया, आपका मन-मस्तिष्क सभी कुछ स्वतः ही शुद्ध व पवित्र बना रहेगा। उपनिषद का श्लोक भी है- आहार शुद्धो, सत्व शुद्धि मतलब, यह कि आहार शुद्ध होगा तो उसका सार भी शुद्ध होगा अर्थात् आपके विचार व व्यवहार भी शुद्ध होंगे। इसीलिए भोजन पकाने वाले की यह ज़िम्मेदारी है कि वह भोजन पकाते समय वही भाव रखे, जो एक माँ रखती है। तभी तो हमें अपनी माँ के हाथ का बना खाना अच्छा लगता है, क्योंकि उसके पीछे का भाव भी शुद्ध होता है। इसलिए तो हम खाने के उस स्वाद को आजीवन नहीं भुला पाते। और अकसर कहते भी हैं कि माँ के बनाए खाने की तो बात ही कुछ और है।



No comments:

Post a Comment