Wednesday, June 29, 2016

विश्वास

रामायण का एक प्रसंग है। सीता के बारे में यह पता चल जाने पर कि उन्हें समुद्र पार लंका में रावण की अशोक वाटिका में बंदी बनाकर रखा गया है, राम ने निर्णय किया कि वे सीता को छुड़ाकर लाएँगे। इसके लिए राम सेना सहित लंका विजय की कामना से समुद्र तट पर पहुँचे। वहाँ पर यह प्रश्न खड़ा हो गया कि समुद्र को कैसे पार किया जाए? सोच-विचारकर निर्णय हुआ कि लंका पहुँचने के लिए समुद्र पर सेतु या पुल का निर्माण करना होगा। जाम्बवंत ने नल-नील को बुलाकर सेतु निर्माण का कार्य सौंपा। नल-नील को यह शाप मिला हुआ था कि वे जिस किसी भी वस्तु को पानी में डालेंगे, वह डूबेगी नहीं बल्कि तैरती रहेगी। इसके बाद जाम्बवंत ने वानरों और भालुओं की सेनाओं को नल-नील की सहायता करने के लिए कहा। इस पर सभी अपने-अपने सामथ्र्य के अनुसार पुल निर्माण के कार्य में जुट गए। वे बड़ी-बड़ी चट्टानें और वृक्षों को उखाड़कर लाते और नल-नील को दे देते। वे दोनों उन्हें जमाते जाते। सभी के साथ हनुमान भी बहुत ही तीव्रता से कार्य में लगे थे। वे किसी से पीछे नहीं रहना चाहते थे। वे तेज़ी से जाकर चट्टानों को उठाकर लाते और उन पर "राम' लिखकर पानी में डाल देते। बिना नल-नील के छुए ही राम नाम लिखे ये पत्थर भी पानी पर तैरने लगते थे।
     सबको काम करते देखकर राम के मन में भी विचार आया कि मुझे भी सेतु निर्माण में सहायोग करना चाहिए। ऐसा विचार मन में आते ही उन्होने एक पत्थर उठाया और उसे समुद्र में फेंका, लेकिन यह क्या? पानी में तैरने की बजाय पत्थर डूब गया। राम आश्चर्य चकित होकर देखने लगे। उन्होने एक और पत्थर उठाकर पानी में डाला। इस बार भी वही हुआ और वह पत्थर भी पानी में डूब गया। राम के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। अचानक उनकी दृष्टि हनुमान पर पड़ी। उन्होने इशारे से उन्हें अपने पास बुलाया। पास आने पर राम ने पूछा-पवनपुत्र! तुम जो भी पत्थर पानी में डाल रहे हो वह तो तैर रहे हैं जबकि मेरे द्वारा डाले गए पत्थर डूब रहे हैं। यह अनहोनी कैसे हो रही है? इस पर हनुमान बोले-प्रभु, इसमें अनहोनी की क्या बात है। यह तो होना ही है। सभी जानते हैं कि आप ही तारणहार हैं और जिसका आप हाथ पकड़ लेते हैं वह तैर जाता है। लेकिन जब तारणहार ही छोड़ देगा तो उसे डूबने से फिर कौन बचा सकता है। यही गति आपके हाथों से छूटे हुए पत्थरों की भी हो रही है। जहाँ तक पानी में मेरे द्वारा डाले गए पत्थरों के तैरने की बात है तो इसमें भी कोई अनहोनी की बात नहीं है। मुझे अपने स्वामी पर पूरा विश्वास है। और जब मैं बिना किसी संशय या संदेह के आपका नाम लिखकर पत्थर पानी में डालता हूँ तो फिर वह आपकी कृपा से डूबेगा कैसे, तैरेगा ही।
     दोस्तो, यही है विश्वास की शक्ति जो पत्थर को भी तैरा देती है। जब भी हम कोई कार्य पूरे विश्वास व लगन से करते हैं तो उसमें सफलता मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं। इसलिए यदि आपने अपने जीवन का लक्ष्य बहुत बड़ा बना रखा है, ऐसा लक्ष्य जो किसी दूसरे की दृष्टि में असंभव हो, जिसकी प्राप्ति किसी अनहोनी घटना से कम न हो, उसे भी इसी विश्वास के सहारे प्राप्त किया जा सकता है। यानी आपको यदि अपनी क्षमताओं और योग्यताओं पर पूरा भरोसा है तो फिर निÏश्चत होकर लक्ष्य प्राप्ति में पूरी लगन से जुट जाएँ। तब आप स्वयं देखेंगे कि अनहोनी कैसे घटित होती है। कहते भी हैं असंभव को संभव वे ही कर दिखाते हैं, जिन्हें अपने आप पर पूरा भरोसा होता है। वैसे भी विश्वास वह शक्ति है, जो व्यक्ति की आंतरिक उर्जा को बढ़ाकर उसे अधिक क्षमतावान बनाती है, जबकि संदेह ऊर्जा की गति को बाधित कर उसे कमजोर कर देता है। इसलिए वही व्यक्ति अपने सपने साकार करने में सफल होता है, जो संदेह से मुक्त और विश्वास से युक्त हो।
     दूसरी ओर, यदि आप हर काम और हर व्यक्ति को संशय की दृष्टि से देखते हैं तो इस आदत को जल्द से जल्द बदल दीजिए। क्योंकि यह आदत एक न एक दिन आपके लिए परेशानी का सबब बनकर आपकी नैया को डुबा सकती है। जब आप खुद दूसरों पर भरोसा नहीं करोगे तो दूसरों से कैसे अपेक्षा रखोगे कि वह आप पर भरोसा करें। ऐसे हालात में लोग आपसे संबंध बनाकर नहीं रखना चाहेंगे। फिर चाहे वह आपके सहकर्मी, अधिकारी या बॉस ही क्यों न हों। और जिस दिन बॉस का विश्वास आप पर से उठ गया तो मानकर चलिए कि राम के हाथ से छूटे पत्थर की तरह आप भी डूबेंगे ही। इसमें भी कोई अनहोनी वाली बात नहीं है। जिसके साथ बॉस का हाथ न हो, उसे डूबने से कोई नहीं बचा सकता। इसलिए भरोसेमंद बनो। अपने काम और अपने राम पर पूरा विश्वास रखो और परिणाम को राम भरोसे छोड़कर काम में जुट जाओ। सफलता अवश्य मिलेगी।
     राम अर्थात सद्गुणों और संस्कारों से परिपूर्ण एक व्यक्तित्व। राम में वे सभी गुण थे, जिनका कि ज़िक्र हम रोज करते हैं। इन्हीं गुणों को आत्मसात कर आप भी राम जैसा बन सकते हैं। क्योंकि राम बनना असंभव नहीं है। गुणों व संस्कारों ने ही राम को राम बनाया और उन्हीं के सहारे आप भी बन सकते हैं राम। अच्छा, राम-राम ।


Monday, June 27, 2016

मिलकर रहें, बाँटकर खाएं।


     एक बार एक बहुत बड़े संत का शिष्य उनके पास जाकर बोला-गुरुजी! कृपया मुझे संसार में रहकर जीवन जीने का सही तरीका बताएँ जिससे मैं सफलता भी प्राप्त कर सकूँ। गुरु जी बोले-तूने अच्छी बात पूछी है, हम तुझे अवश्य बताएँगे। इसके लिए तुझे आज पूरे दिन हमारे साथ रहना होगा। शिष्य ने कहा-यह तो मेरे लिए सौभाग्य की बात है। वे दोनों यह बात कर ही रहे थे कि गुरु जी से मिलने एक व्यक्ति आया। यह व्यक्ति गुरु जी के लिए भेंटस्वरूप कुछ फल लेकर आया और उनके सामने रख दिए। गुरु जी उन्हें उठाकर खाने लगे। धीरे-धीरे उन्होने सभी फल खा लिए। इसके बाद वे उसे कुछ बोले बिना ही वहाँ से चले गए। उनके इस तरह के व्यवहार से वह व्यक्ति आश्चर्य में पड़ गया वह शिष्य की ओर देखकर बोला- क्या अजीब संत हैं सब फल खा गए, लेकिन मेरी ओर देखा तक नहीं, यहाँ तक कि मुझे बैठने को भी नहीं कहा। ऐसा कहकर वह व्यक्ति गुस्से से पाँव पटकते हुए चला गया। इसके बाद गुरु जी ने वापस आकर शिष्य से पूछा क्यों पुत्र! क्या कह रहा था वह व्यक्ति? शिष्य ने गुरु जी को सारी बात बताई। उसकी बात सुनकर गुरु जी बोले-यानी संसार में रहकर जीने का यह तरीका ठीक नहीं। इससे सफलता भी नहीं मिल सकती। कोई दूसरा तरीका सोचना पड़ेगा।
     इतने में एक दूसरा व्यक्ति गुरु जी के पास आया। वह भी साथ में फल लेकर आया जिन्हें उसने गुरु जी के सामने रख दिये। गुरु जी ने वे फल उठाए और शिष्य को देते हुए कहा कि इन्हें ले जाकर कचरे में फेंक दो। शिष्य ने ऐसा ही किया और वापस आकर अपनी जगह पर बैठ गया। उसके बाद गुरु जी ने बड़े ही सम्मान के साथ उस व्यक्ति को अपने पास बैठाया और उससे मीठी-मीठी बातें करने लगे। उन्होने उससे उसका व उसके परिवार का हालचाल पूछा, व्यापार व्यवसाय की बातें की, स्वास्थ्य के बारे में जानकारी ली। इस प्रकार अच्छी-अच्छी बातें करने के बाद गुरु जी ने अपने शिष्य से कहा कि इन सज्जन को ससम्मान बाहर तक छोड़ आओ। देखना इन्हें कोई परेशानी न हो। शिष्य उन्हें छोड़ने चल पड़ा। बाहर आकर वह व्यक्ति शिष्य से बोला-कैसे संत हैं ये? मुझसे तो इतने प्यार से बातें कर रहे थे और मेरे द्वारा लाए गए फलों को ऐसे फिंकवा दिया जैसे वे ज़हरीले हों। एक तरफ तो अपमान करते हैं, दूसरी तरफ सम्मान। लगता है इनका सिर फिर गया है।
     इस प्रकार उसने शिष्य के सामने अपने मन की सारी भड़ास निकाल ली। जब शिष्य वापस आया तो गुरु जी ने पूछा-पुत्र! क्या प्रतिक्रिया थी उस व्यक्ति की? शिष्य ने सारी बातें गुरु जी को बतार्इं और बोला-यह तो पहले वाले से भी ज्यादा गुस्से में था। गुरु जी बोले-यानी संसार में रहकर जीने व सफलता पाने का यह तरीका भी ठीक नहीं। कोई और उपाय सोचना पड़ेगा।
     थोड़ी देर बाद ही एक और व्यक्ति गुरु जी से मिलने आया। पहले वालों की तरह वह भी साथ में फल लाया था। उसने भी फल उनके सामने रख दिए। गुरु जी ने ससम्मान उसे अपने पास बैठाया और उससे अच्छी-अच्छी बातें करने लगे। बातें करते करते उन्होने अपने सामने रखे फलों में से कुछ शिष्य को दिए, कुछ उस व्यक्ति को और कुछ स्वंय ने ले लिए। इसके बाद वे फल खाते-खाते बातें करने लगे। जब बातें खत्म हुई तो गुरु जी ने अपने शिष्य से उस व्यक्ति को बाहर छोड़कर आने को कहा। बाहर आकर वह व्यक्ति शिष्य से बोला-कितने महान संत हैं। मैने बड़े पुण्य किए होंगे जो इन जैसे महात्मा जी के दर्शन हुए। मन प्रसन्न हो गया। लगता है जैसे अब तो कोई चाह ही नहीं बची। उसकी बातें सुनकर शिष्य भी प्रसन्न हो गया। प्रसन्नता की बातें किसे प्रसन्न नहीं करेंगी। वह अंदर आया और इसके पहले कि गुरु जी कुछ पूछते, उसने आगे रहकर स्वयं ही सारी बातें बता दी। गुरु जी बोले-संसार में रहकर जीवन जीने और सफलता पाने का यही सही तरीका है। और यही तरीका तम्हें भी अपनाना चाहिए। तुम क्या कहते हो? शिष्य कैसे इनकार करता।
    और आप भी कैसे इनकार कर सकते इस तरीके से कि "मिलकर रहें, बाँटकर खाएँ।'  मिल-बाँटकर रहने खाने की यह भावना हर उस व्यक्ति में होनी चाहिए जो प्रगति करने के सपने देखता है। प्रगति करनी है तो लोगों को साथ लेकर चलना होगा। साथ लेकर चलने के लिए उन्हें अपना बनाना होगा। अपना बनाने के लिए अपनापन दिखाना पड़ेगा। अपनापन दिखाने के लिए उनके साथ आत्मीय व्यवहार करना होगा। तभी आप भी प्रसन्न रहेंगे और दूसरे भी। जब प्रसन्नता रहेगी तो प्रगति में फिर बाधा ही क्या रह जाती है।
     यदि कार्यस्थलों की बात करें तो हम सभी जानते हैं कि कोई भी सफलता अकेले के बूते की बात नहीं। सफ़लता के लिए आपको सहयोग की आवश्यकता होती है जो आपको मिलता है अपने साथियों से। यानी आपके जो भी लक्ष्य हैं, वे तभी पूरे होंगे जब आपके साथी उसमें भागीदार हों। फिर भागीदारी का स्तर चाहे कुछ भी हो। यही तो है मिल-बाँटकर रहना-खाना यानी टीम भावना जिसके बूते आप मिल-जुल कर कोई भी लक्ष्य पा सकते हैं, किसी भी मुश्किल स्थिति का सामना आसानी से कर सकते हैं। तो फिर सोचना कैसा? आज से ही इस मंत्र को अपनाकर अपनो को प्रसन्न करें और खुद भी प्रसन्नता पाएँ।

Thursday, June 23, 2016

चरित्र से ही मिलता है सम्मान


     महाभारत युद्ध का एक प्रंसग है। इस भीषण धर्मयुद्ध के दसवें दिन भीष्म पितामह के शक्तिहीन होकर गिरने के पश्चात द्रोण को कौरव सेना का सेनापति बनाया गया। द्रोण ने उस दिन युद्ध आरंभ होते ही पांडव सेना को नष्ट करना शुरु कर दिया। गुरु के आगे कौेन टिक सकता है? अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर कोई नहीं टिक पाया। द्रोणाचार्य भयंकर विनाशलीला मचा रहे थे। मध्याह्न होने तक अनेक योद्धा खेत रहे। पांडवों को चिंता होने लगी। यदि इसी प्रकार चलता रहा तो शाम होते-होते तो पांडव सेना में शायद ही कोई जीवित बचे। सभी स्थिति से निपटने का रास्ता सोचने लगे। कृष्ण बोले-एक ही रास्ता है, यदि द्रोणाचार्य किसी युक्ति से अपने शस्त्र छोड़ दें। शस्त्र छोड़ने का उपाय भी उन्होने ही सुझाया। यदि कोई जाकर उन्हें यह कह दे कि उनका पुत्र अश्वत्थामा मारा गया है तो वे अपने पुत्र वियोग में निश्चित ही शस्त्र त्याग देंगे।
     अब नई समस्या खड़ी हो गई। यह बोलेगा कौन? युधिष्ठिर बोले-गुरु से शस्त्र त्याग कराने का यह उपाय शास्त्रोक्त नहीं है, यह अधर्म है। कृष्ण बोले- है तो अधर्म किंतु प्रश्न तो विजय का है। यदि तुम विजय चाहते हो तो ऐसा करना ही पड़ेगा। युधिष्ठिर इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस पर भीम ने कहा-आप विचार करते रहो। मैं ही कुछ करता हूँ। ऐसा कहकर वे मालवराज की टुकड़ी की ओर बढ़ गए। मालवराज की टुकड़ी में अश्वत्थामा नाम का एक हाथी था। भीम ने एक ही प्रहार से उस हाथी का बध कर दिया और शोर मचाने लगे- अश्वत्थामा मारा गया!अश्वत्थामा मारा गया!
     भीम की आवाज़ द्रोणाचार्य के कानों तक पहुँची। उन्होने तुरंत पूछा-कौन कहता है? उन्हें बताया गया कि भीम कह रहा है। यह सुनकर द्रोण बोले- भीम तो झूठा है। उसकी बात का विश्वास नहीं किया जा सकता। वह निश्चित ही मेरे शस्त्र छुड़वाने के लिए ऐसा कह रहा है। अब मुझे कोई नहीं रोक सकता। मैं आज शाम तक ही इस युद्ध का अंत कर दूँगा। और उन्होने अधिक तीव्रता से हमले शुरु कर दिए। लेकिन कहते हैं कि एक बार मन में ऐसी कोई बात आ जाए तो आशंका होने ही लगती है। द्रोण को यह बात परेशान करने लगी। वे सोचने लगे कि ऐसा हो सकता है। आखिर युद्ध का मामला है। क्या किया जाए? अचानक उन्हें विचार आया कि युधिष्ठिर से पूछता हूँ। वह कभी असत्य नहीं बोलेगा। सत्य के लिए तो वह तीनों लोकों के सुख को दाँव पर लगा सकता है। उन्होने रथ युधिष्ठिर की ओर मोड़ दिया और उसके निकट जाकर बोले-पुत्र युधिष्ठिर! भीम कहता है कि अश्वत्थामा मारा गया, क्या यह सच है?
     तब तक कृष्ण युधिष्ठिर को समझा चुके थे कि उन्हें क्या और कैसे कहना है। लेकिन फिर भी कुछ कहने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी। जब गुरुदेव ने दोबारा पूछा तो युधिष्ठिर ने कंपकंपाती आवाज़ में कहा, "अश्वत्थामा हतः।' और उसके बाद धीरे से बोले "नरो वा कुंजरो वा।' यानी अश्वत्थामा मारा गया, आदमी नहीं हाथी। द्रोण आधी बात ही सुन पाए और उन्होने अपने शस्त्र त्याग दिए। महाभारत की यह घटना हमारे लिए नई नहीं है। इस घटना के माध्यम से हम जीवन के उस पहलू की चर्चा करेंगे, जो हम सभी की प्रगति के लिए बहुत आवश्यक है। वह पहलू है  हमारा चरित्र, हमारी छवि।
     हम गौर करें कि भीम के पास युधिष्ठिर की तुलना में किस चीज़ की कमी थी। दोनों सहोदर थे, वीर थे, विद्वान थे, दोनों की पृष्ठभूमि एक थी, उनका लालन-पालन एक जैसे वातावरण में हुआ था, यहाँ तक कि उनके गुरु भी एक ही थे। फिर ऐसी कौन सी बात थी कि द्रोणाचार्य भीम की बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं हुए। लेकिन युधिष्ठिर के मुँह से वही बात सुनने के बाद उन्होने दूसरी बार सोचा तक नहीं। वह बात थी दोनों की छवि या चरित्र में अंतर। बाल्यावस्था से ही युधिष्ठिर ने अपनी सत्यवादी छवि को बनाए रखा था। द्रोण ने उनकी बात का विश्वास इसी छवि के करण किया था, जबकि भीम कि छवि इसके उलट थी। यानी व्यक्ति की सफलता में उसकी छवि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। यह छवि बनती है उसके चरित्र के किसी विशेष गुण से। जैसे कि कोई सत्यवादी होता है कोई न्यायप्रिय होता है, कोई दानवीर होता है। मतलब यह कि हमारे अंदर व्यक्तित्व के सभी श्रेष्ठ गुण तो होने ही चाहिए साथ ही किसी विशेष गुण को हमें अवश्य अपने चरित्र से जोड़ लेना चाहिए। कहते हैं कि एक को साधने पर सब सध जाते हैं। यह बात ईश्वर के संबंध में कही गई है, लेकिन यह गुणों के संबंध में भी लागू हो सकती है। एक गुण को साध लो, बाकी सभी सद्गुण स्वतः ही आपके हो जाएँगे। चरित्र धन से भी श्रेष्ठ संपत्ति है। चरित्र नहीं खरी़दा जा सकता। यह सफलता के साथ-साथ सम्मान भी दिलवाता है। यही कारण है कि कई लोग सफल तो हो जाते हैं, लेकिन चरित्र के अभाव में सम्मान के लिए आजीवन तरसते रहते हैं। इसलिए व्यक्ति का चरित्रवान होना आवश्यक है। सफलता की चाह रखने वाले हर व्यक्ति को तो अपने चरित्र पर युधिष्ठिर की ही तरह दृढ़ रहना चाहिए तभी उसे सफलता और सम्मान दोनों मिलेंगे।

Monday, June 20, 2016

ध्यान लगेगा तभी जब हटेगा ध्यान


     बंगाल के कृष्णनगर में राजा कृष्णचन्द्र का शासन था। जब हिल्सा मछलियों का मौसम आता तो पूरे राज्य में सिर्फ हिल्सा की ही चर्चा होती थी। यहाँ तक कि राज दरबार में भी हिल्सा के किस्से बड़े चाव से सुने-सुनाए जाते थे। ऐसे में एक दिन मंत्री ने बहुत बड़ी मछली पकड़ी। दरबार में आकर वह अपनी सफलता का बखान करने लगा। इस पर राजा झल्ला उठा। गुस्सा शांत होने पर राजा बोला-हम बेकार ही झल्ला गए। जब मौसम ही हिल्सा का हो तो इसकी चर्चा को रोकना संभव नहीं है। इस पर दरबार में मौजूद राजा का विश्वासपात्र चतुर नाई गोपाल बोला-नहीं, महाराज, ऐसा किया जा सकता है। राजा ने कहा-तो करके दिखाओ। तुम बाज़ार से एक बड़ी हिल्सा मछली खरीदो और उसे महल तक लेकर आओ। यदि कोई उसके बारे में बात नहीं करेगा तो हम मान जाएँगे। गोपाल ने चुनौती स्वीकार करली। इसके बाद उसने अपनी दाढ़ी बढ़ाना शुरू कर दी। कुछ दिन बाद उसने आधी हजामत बनाकर अपने चेहरे पर कालिख पोत ली और फटे हुए कपड़े पहनकर बाज़ार में निकल गया। वहाँ उसने एक बड़ी हिल्सा खरीदी और नंगे पैर ही महल की ओर चल पड़ा। रास्ते में लोग उसे देखकर तरह-तरह की फब्तियाँ कसने लगे। महल पहुँचने पर दरबान उसे नहीं पहचान सके और उसे वहाँ से भगाने लगे। इस पर वह उनसे झगड़ने लगा। शोर सुनकर राजा ने उसे दरबार में बुलाया। वहाँ भी उसे लोग बड़ी मुश्किल से पहचान सके और उसके बारे में ही तरह-तरह की बातें करने लगे। तभी राजा बोला-गोपाल, यह क्या पागलपन है? गोपाल ने कहा-महाराज, यह पागलपन नहीं आपकी चुनौती का जवाब है। मेरे हाथ में इतनी बड़ी हिल्सा मौजूद है और कोई उसकी बातें नहीं कर रहा है, जबकि सबको वह मेरे हाथ में दिखाई दे रही है। क्या कहते हैं आप? आखिर मैंने सिद्ध कर दिखाया न।
     देस्तो, गोपाल ने राजा को ही नहीं हमें भी सिखा दिया कि यदि आपको किसी विषय या घटना विशेष से लोगों का ध्यान हटाना है तो उनका ध्यान दूसरी तरफ मोड़ दो। हाँ, शर्त यह है कि वह विषय या घटना पहले वाले विषय से ज्यादा रोचक हो। यानी लोग उसमें रूचि या दिलचस्पी रखते हों, दिखाएँ। क्योंकि इसके बिना लोगों का ध्यान बँटाया नहीं जा सकता। यानी किसी चीज़ से ध्यान हटाने के लिए ज़रूरी है कि ध्यान दूसरी ओर लगा दिया जाए। राजनीति में तो नेतागण इस मंत्र का आए दिन उपयोग करते रहते हैं। जब उन्हें लगता है कि उनके द्वारा कही गई या की गई किसी बात को लोग पकड़कर बैठ गए हैं और उसके लिए उनकी आलोचना कर रहे हैं, तब वे या उनकी पार्टी कोई ऐसा शिगूफा छोड़ देते हैं कि लोग पहली घटना भूलकर नए शिगूफे पर चर्चा करना शुरू कर देते हैं। और नेताजी जान छूटने पर मन ही मन कहते हैं- "जान बची और लाखों पाए।' यह बात राजनीति तक ही सीमित नहीं है। यह किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था पर भी लागू हो सकती है। जब व्यक्ति या संस्था किसी भी कारण से अपने बारे में बन रहे नकारात्मक माहौल की दिशा घुमाने के लिए इसी "ध्यान घुमाने वाली' तकनीक का इस्तेमाल करती है। इससे जो गड़बड़ हुई है उससे लोगों का ध्यान हटकर दूसरी ओर लग जाता है।
          अंत में, यहाँ हम यह भी बता दें कि मेडिटेशन या ध्यान में भी यही तरीका अपनाया जाता है। यानी ध्यान लगाने के लिए ज़रूरी है कि बाकी जगहों से ध्यान हटा लिया जाए।

Wednesday, June 15, 2016

तब हँसी उड़ाने वाले की उड़ जाएगी हँसी


     गंगाराम नाम का एक ब्रााहृण अकबर के दरबार में आकर बोला-जहाँपनाह! मैं एक प्रतिष्ठित ब्रााहृण परिवार से हूँ। मेरे बाप-दादा प्रकांड विद्वान थे। लोग उन्हें "पंडित जी' कहकर संबोधित करते थे। हालांकि मैं अनपढ़ हूँ और पुरोहिताई का काम भी नहीं जानता हूँ, लेकिन चाहता हूँ कि आप मुझे भी कोई ऐसी पदवी दे दें ताकि लोग मुझे भी "पंडित जी' कहें। इससे मैं अपने पूर्वजों का नाम आगे बढ़ा सकूँगा। इस पर अकबर बोले-ऐसी स्थिति में हम तुम्हें पदवी कैसे दे सकते हैं। यह सुनकर गंगाराम उदास हो गया। वह बोला-जैसी हुज़ूर की इच्छा। वैसे मैं यहाँ बड़ी उम्मींद लेकर आया था।
     इस पर अकबर असमंजस में पड़ गए। तभी बीरबल बोले-हुज़ूर की आज्ञा हो तो मैं इन्हें बाज़ार में ले जाकर पंडित जी की उपाधि दिलवा सकता हूँ। अकबर ने कहा- यह कैसे संभव है? बीरबल ने उत्तर दिया, यह आप मुझ पर छोड़ दें। अकबर ने बीरबल को आज्ञा दे दी। बीरबल गंगाराम को साथ लेकर बाज़ार में पहुँचे। वहाँ उन्होने एक जगह पर गंगाराम को हाथ में एक डंडी लेकर खड़ा कर दिया। साथ ही उसे हिदायत भी दे दी कि यदि कोई उसे पंडित जी बोले तो उसे भला-बुरा कहे, उसे मारने दौड़े। इसके बाद बीरबल ने कुछ बच्चों को बुलाकर कहा-वह जो व्यक्ति हाथ में डंडी लिए खड़ा है, वह पंडित जी-पंडित जी कहने पर चिढ़ता है। तुम उसे चिढ़ाओगे तो मैं तुम्हें मिठाई दूँगा। बच्चों ने वैसा ही किया और गंगाराम उन्हें गालियाँ बकता हुआ मारने दौड़ा। यह सब वहाँ से गुज़र रहे लोगों ने देखा तो वे भी उसे पंडित जी कहकर चिढ़ाने लगे। गंगाराम ने उन्हें भी गलियाँ देना शुरू कर दिया। शाम होते-होते बहुत से लोग गंगाराम को पहचान गए। इसके बाद गंगाराम जहाँ से भी गुज़रता लोग उसे पंडित जी- पंडित जी कहकर आवाज़ें देने लगते। और इस तरह उसका नाम पंडित जी पड़ गया।
     दोस्तो, यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि गंगाराम का नाम भले ही "पंडित जी' पड़ गया हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह "पंडित' यानी विद्वान हो गया था। वह तब भी अनपढ़ था, अयोग्य था और बिना योग्यता के तो उपाधि इसी तरह मिल सकती है। क्योंकि वास्तविक उपाधि पाने के लिए किसी भी व्यक्ति को योग्यता की कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है और इसके लिए बाप-दादा का नाम काम नहीं आता। उनके नाम से लोग आपको पहचानते तो हैं, लेकिन यदि आप उस पहचान के सहारे अपने को साबित कर अपनी अलग पहचान नहीं बना पाते तो लोग फिर आपका सम्मान नहीं करते। यानी यदि आप लोगों के दिल में अपने लिए वही सम्मान चाहते हैं जो आपके पूर्वजों का था, तो फिर उसके लिए आपको अपने आपको प्रमाणित करना ही होगा। कहा गया है कि
     "उत्तमा आत्माना ख्याताः, पितु ख्याताश्च मध्यमाः।
     मातुलेनाधमाः    ख्याताः,    श्वसुरेणाधमाधमाः ।
यानी जो व्यक्ति अपने नाम से विख्यात है, वह उत्तम है। जो पिता के नाम से प्रसिद्ध है, वह मध्यम है। जो मामा के नाम से जाना जाता है वह अधम और ससुर के नाम से जिसकी पहचान है वो अधमों का भी अधम है। इसलिए गंगाराम की तरह सिर्फ नाम के लिए ही "पंडित जी' कहलाने की इच्छा न रखें। इससे आपके परिवार का नाम रोशन नहीं होता। बल्कि ऐसा करके आप अपने पूर्वजों के नाम पर बट्टा ही लगाते हैं और साथ ही खुद भी उपहास के पात्र बनते हैं। इससे आपको यश नहीं, अपयश मिलता है।
     दूसरी ओर, यदि कोई बात आपको चिढ़ाने के लिए कही जा रही है तो उस पर न चिढ़ें कयोंकि उसके चिढ़ाने पर चिढ़कर या परेशान होकर आप उसके उद्देश्य को पूरा करते हैं। इससे परेशान आप होते हैं और मज़ा उसे आता है। इसके विपरीत यदि आप चिढ़ाने वाले की बात पर चिढ़ने की बजाय खुद उस बात का आनंद उठाने लगेंगे तो बाज़ी पलट जाएगी। तब परेशान आप नहीं, वह होगा क्योंकि उसका वार जो खाली चला जाएगा। अधिकतर लोगों के उल्टे-सीधे नाम इसीलिए पड़ गए क्योंकि वे उस नाम से पुकारे जाने पर चिढ़ते थे। इसलिए यदि आपको कोई उल्टे-सीधे नाम से पुकारे तो आप भौंहें तानने की बजाय सिर्फ मुस्करा दें। देखिएगा कि कैसे उस हँसी उड़ाने वाले की हँसी उड़ जाती है और आपका उल्टा नाम रखने का उसका षड¬ंत्र धराशायी हो जाता है।

Wednesday, June 8, 2016

पड़ोसी की प्रगति में है आपकी प्रगति

ड़ोसी की प्रगति में है आपकी प्रगति
     एक खाद बनाने वाली कंपनी अपने उत्पाद के प्रचार प्रसार के लिए प्रतिवर्ष एक प्रतियोगिता आयोजित करती थी। इसमें शामिल किसानों को एक निश्चित रकबे में सोयाबीन उगानी होती थी। जिस किसी भी किसान की फसल व पैदावार अधिक होती थी, उसे "किसान की शान' पुरुस्कार  से सम्मानित  किया जाता था। अनेक किसान इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेते। वे उचित समय पर अपने खेतों की जुताई करते, बुवाई के लिए उच्चकोटि  के बीजों का इस्तेमाल करते, अच्छी निदाई-गुड़ाई करते, लेकिन जब पुरस्कार की घोषणा होती तो एक ही किसान हर बार वह पुरस्कार जीत जाता। ऐसा कई वर्षों से हो रहा था। लाख कोशिशों के बाद भी अच्छी फसल का पुरस्कार पाने में कोई किसान सफल न हो पाता।
     एक बार एक पत्रकार उस किसान के पास पहुँचा और उससे जानना चाहा कि आखिर उसकी सफलता का राज़ क्या है? किसान ने पहले तो पत्रकार को बहुत टालना चाहा, लेकिन वह पत्रकार ही कैसा जो मनचाही बात न जान पाए। उसने भी घुमा-फिराकर उससे बात जान ही ली। उस किसान ने बताया कि वह हर साल अच्छी फसल इसलिए पैदा कर पाता है क्योंकि वह जो उन्नत किस्म के बीज वह अपने पड़ोसी किसानों को भी दे देता है।
     जब पत्रकार ने उससे कहा कि यह तो घाटे का सौदा हुआ। इसके लिए तुम्हें अतिरिक्त व्यय भी करना पड़ता होगा। इस पर किसान बोला-व्यय तो होता है लेकिन अपव्यय नहीं होता, क्योंकि किसी भी अच्छी फसल के लिए ज़रूरी है कि परागकण की क्रिया ठीक प्रकार से हो। अच्छे परागकण के लिए पराग कण भी उन्नत किस्म के होने चाहिए, जो उन्नत बीज के माध्यम से ही उत्पन्न हो सकते हैं। यह परागकण पड़ोसी के खेतों से ही उड़कर मेरे खेतों में आते हैं और परिणाम यह होता है कि मेरी फसल अच्छी होती है।
     यदि मेरे पड़ोसी निम्नकोटि के बीज इस्तेमाल करेंगे तो मेरी फसल भी उनसे प्रभावित होगी। उन्हें बीज देकर मैं इस संभावना को पहले ही रोक देता हूँ। उसकी बात सुनकर पत्रकार बोला-तुम्हारी बात मुझे समझ में आ गई। लेकिन जब तुम्हारे पड़ोसी तुम्हारे दिए बीजों की बुवाई करते हैं तो फिर उनकी खेती अच्छी क्यों नहीं होती? इस पर वह किसान बड़े ही भोलेपन से बोला-क्योंकि वे अपने पड़ोसियों को उन्नत बीज़ नहीं देते। उससे उनकी फसल अपने पड़ोसी के मुकाबले तो अच्छी होती है, लेकिन मेरे से अच्छी नहीं होती। क्योंकि उनके खेतों में परागकण की क्रिया के लिए आने वाले सभी परागकण श्रेष्ठ नहीं होते। मेरे खेत से तो उन्हें कोई समस्या नहीं होती, लेकिन उनके खुद के पड़ोसी की खेती उनकी फसल को बिगाड़ देती है। इस प्रकार हर साल अंततः पुरस्कार मुझे ही मिल जाता है। वैसे मैने उन्हें इस बारे में समझाया भी, लेकिन अपने पड़ोसियों से ईष्र्या के चलते उन्हें मेरी बात समझ में ही नहीं आती। इस तरह वे अपना ही नुकसान करते हैं।
     क्या बात है? इसे कहते हैं पड़ोसी-धर्म। यानी यदि हम अपने जीवन में उन्नति करना चाहते हैं तो अपने पड़ोसी से ईष्र्या करने की बजाय उसे भी प्रगति के लिए प्रेरित करें। इसके दो लाभ हैं। एक तो पड़ोसी से आपके संबंधों में मधुरता आएगी जिससे आप तनावमुक्त रहेंगे और दूसरे, दोनों ही एक-दूसरे की खुशियोंं में शामिल होंगे जिससे दोनों की खुशियाँ दोगुनी हो जाएँगी।
     जबकि दूसरी ओर यदि आप तो प्रगति किए जा रहे हैं और पड़ोसी की सहायता करना तो दूर, उससे संबंध भी मधुर नहीं बनाकर रख रहे हैं तो इसका सीधा प्रभाव एक दिन आपकी प्रगति पर भी पड़ेगा। क्योंकि कहीं न कहीं आपकी प्रगति पड़ोसी को अखरेगी और फिर ईष्र्यावश छोटी-छोटी बातों पर होने वाली आपसी खटपट से आप लोगों के बीच तनाव बढ़ेगा। इसलिए बेहतर यही है कि अपने पड़ोसी से प्रेम के संबंध बनाकर रखे जाएं क्योंकि पड़ोसी ही वह व्यक्ति होता है जो किसी भी मुसीबत के समय सबसे पहले आपकी मदद के लिए आगे आता है।
     यह बात ऐसे लोगों को विशेष रूप से ध्यान रखनी चाहिए जिनकी अपने पड़ोसियों से नहीं पटती। इसकी वजह से वे तनाव में तो रहते हैं लेकिन तनावमुक्त होने का प्रयास नहीं करते। अपनी ओर से पहल करके पड़ोसियों से संबंध मधुर बनाने में उनका अहं आड़े जो आता है। यदि वे सोचते हैं कि पड़ोसी के बिना भी उनका काम चल जाएगा तो वे गलत सोचते हैं क्योंकि हम अपने घर पर मित्रों के बिना तो रह सकते हैं, लेकिन अपने पड़ोसियों के बिना नहीं। फिर हम जहाँ भी रहेंगे, वहाँ कोई न कोई पड़ोसी होगा ही। इसलिए अच्छा यही है कि पड़ोसी से मनमुटाव की जगह बनाव करके चलें। कहा भी गया है कि यदि तुम अपने पड़ोसी से प्रेम नहीं कर सकते, जिसको तुम रोज़ देखते हो, तो ईश्वर से प्रेम कैसे करोगे, जिसको कि तुमने कभी देखा ही नहीं। और पड़ोसी से प्रेममय संबंध बनाने की पहल करने का सबसे आसान तरीका यह है कि उसे चाय पर बुलाएँ या खुद जाएँ। फिर देखिए, आपके संबंध कैसे प्रगाढ़ नहीं होते?

Monday, June 6, 2016

अँगूठा लगाओगे तो लोग दिखा देंगे अँगूठा



निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या सीखने के लिए हस्तिनापुर आया। द्रोणाचार्य ने उसे शिक्षा देने से मना कर दिया, क्योंकि वे राजकुमारों के साथ निषाद कुमार को शिक्षा नहीं दे सकते थे। लेकिन एकलव्य ने तो ठान लिया था कि वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनकर रहेगा। उसने वन में जाकर द्रोंणाचार्य की प्रतिमा बनाई और पूजन करने के बाद खुद ही धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। लगन और नियमित अभ्यास से वह शीघ्र ही इसमें निपुण हो गया।
     एक दिन कौरव-पांडव शिकार खेलने के लिए वन में आये। उनके साथ एक कुत्ता भी था। कुत्ता भटकता हुआ उस जगह पहुँच गया जहाँ एकलव्य अभ्यास कर रहा था। कुत्ते ने उसे देखकर भौंकना शुरू कर दिया। इससे अभ्यास में बाधा पड़ते देख एकलव्य ने कुत्ते का मुँह बाणों से भर दिया। कुत्ता भागकर राजकुमारों के पास पहुँचा। उसे देखकर सब हैरान रह गए, क्योंकि कुत्ते के मुँह में कहीं भी चोट का निशान नहीं था। वे बाण चलाने वाले को खोजते हुए एकलव्य के पास पहुँचे। अर्जुन बोले-तुम कौन हो और तुम्हारे गुरू का नाम क्या है? इस पर एकलव्य ने अपना नाम बताते हुए द्रोण को अपना गुरू बताया। राजकुमारों ने यह बात आचार्य को बताई। अर्जुन बोले- गुरूदेव आपने कहा था कि मुझे पृथ्वी पर सबसे बड़ा धनुर्धर बना देंगे, लेकिन एकलव्य तो मुझसे भी श्रेष्ठ है। यह सुनकर द्रोण उन्हें साथ लेकर एकलव्य के पास पहुँचे। एकलव्य ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। द्रोण-उठो वत्स, यदि तुम मुझे अपना गुरू मानते हो तो गुरू दक्षिणा भी दो। एकलव्य-आज्ञा कीजिए। द्रोण-तुम अपने दाहिने हाथ का अँगूठा मुझे दे दो। इस पर उसने हँसते-हँसते अपना अँगुठा गुरू को भेंट किया।
     दोस्तो, यह पराकाष्ठा है गुरूभक्ति की। एकलव्य ने सिखा दिया कि यदि आपने कुछ करने की ठान ली है तो फिर कोई भी बाधा आपको नहीं रोक सकती। एकलव्य जैसी लगन हर उस व्यक्ति में होनी चाहिए जो सफल होना चाहता है। वैसे सफलता के झंडे गाड़ने वालों की आज भी कमी नहीं है। अब देखिए न कोचिंग के बढ़ते दौर में भी छोटे-छोटे शहरों से मेरिट में आने वाले बच्चों को आप क्या कहेंगे, जो कि कोचिंग लेने की सोच ही नहीं सकते। जब वे खुद के बूते पढ़कर मेरिट में आते हैं तो निश्चित ही उनके भीतर भी एकलव्य जैसी ही लगन होगी। ऐसी ही धुन और अभ्यास के सहारे आप भी अपने क्षेत्र में निपुणता हासिल कर सकते हैं।
     यहाँ सीखने के लिए एक दूसरा पहलू भी है। वह यह कि यदि सामने वाला दूषित सोच से आपसे कुछ करने को कह रहा है तो बिना सोचे-समझे वह काम न करने लग जाएँ। फिर भले ही वह कितना ही महत्वपूर्ण व्यक्ति क्यों न हो। वरना द्रोण की तरह अँगूठा माँगने वालो की आज भी कोई कमी नहीं है। रोज न जाने कितने अँगूठा छाप इनकी बातों में आकर अपना सर्वस्व लुटा देते हैं। यहाँ अँगूठा छाप से तात्पर्य निरक्षर या अनपढ़ व्यक्ति से है।
     एक जो व्यक्ति साक्षर नहीं है, वह तो सामने वाले पर भरोसा करके किसी भी कागज पर अपना अँगूठा लगा देता है। अब यह भी तो एक तरह से अँगूठा माँगना ही हुआ न। कई मामलों में तो अँगूठा लगाने वालें को अहसास ही नहीं होता कि वे अँगूठा लगाकर अपनी ही किस्मत को अँगूठा दिखा रहे हैं। सामने वाला अँगूठा लगवाकर उन्हें ही अँगूठा दिखा देता है। इसलिए जरूरी है कि किसी पर भी आँख मूँदकर विश्वास करने से पहले उसे परखा जाए।
     वैसे भी दुनियाँ में जाहिल होने से बड़ा कोई गुनाह नहीं है। यह गुनाह व्यक्ति स्वयं अपने साथ करता है। दूसरी ओर निरक्षर को साक्षर बनाने से बढकर कोई समाजसेवा नहीं हो सकती। देश और समाज की प्रगती के लिए जरूरी है कि कोई भी निरक्षर न रहे। किसी के लिए भी काला अक्षर भैंस बराबर न हो। आपसे अनुरोध है कि आप भी ऋषि बनकर ऐसे व्यक्तियों को पढ़ाँए या पढ़ने की व्यवस्था करें जो अनपढ़ हैं। समाज के लिए यह आपका बहुत बड़ा योगदान होगा। ऐसा करके आपको खुशी भी मिलेगी।

Wednesday, June 1, 2016

जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन


     एक जंगल में बहुत ही ज्ञानी और तपस्वी संत रहते थे। धन व माया से उन्हें बिलकुल मोह नहीं था। जो भी उनके दर्शन करता, उसे बहुत शांति मिलती। एक बार उस राज्य का राजा उनसे मिलने आया। उनके कष्टप्रद रहन-सहन को देखकर राजा ने बड़ी ही विनम्रता से उनसे अपने महल में चलकर रहने का आग्रह किया। संत ने पहले तो बहुत मना किया, लेकिन राजा के अत्यधिक आग्रह को वे टाल नहीं पाए और उनके साथ चले गए। राजा ने महल के सबसे अच्छे कमरे में उनके ठहरने की व्यवस्था कर दी। उनकी सेवा के लिए नौकर-चाकर भी नियुक्त कर दिए गए। रोज नए-नए पकवान उन्हें खाने को मिलते। धीरे-धीरे अपने जीवन में आया परिवर्तन उन्हें रास आने लगा। राजा-रानी प्रतिदिन उनके पास आकर सत्संग का लाभ उठाते। इस तरह कई महीने बीत गए।
     एक दिन रानी स्नानागार से नहाकर लौटते समय अपना हार वहीं भूल आर्इं। रानी के बाद संत वहाँ नहाने पहुंचे। वहाँ रखे हार को देखकर उनकी नीयत डोल गई। उन्होंने उसे अपने कपड़ों में छिपा लिया और स्नान के बाद उसे लेकर बाहर आ गए। जब वे अपने कमरे की तरफ बढ़ रहे थे तो उनके मन में विचार आया कि कमरे में कहाँ जाता है। नौलखा हार है, इसे लेकर भाग जा। कोई तुझ पर शक भी नहीं करेगा और किसी दूसरे राज्य में जाकर इसके सहारे सुखमय जीवन व्यतीत करना। ऐसा विचार मन में आते ही वह संत तुरंत महल से निकल जंगल में चले गए।
     इस बीच रानी को ध्यान आया कि वे हार स्नानागार में भूल आई है। उन्होने दासी को हार लेने के लिए भेजा, लेकिन हार वहाँ हो तो मिले। हार तो पार हो चुका था। तुरंत तलाश प्रारंभ हुई। सभी जगह तलाशा गया, लेकिन हार नहीं मिला। राजा को स्नानागार के द्वारपालों से पता चला कि रानी के बाद वहां नहाने के लिए संत गए थे। राजा उनसे मिलने पहुँचे। लेकिन संत वहाँ नहीं मिले। राजा को यकीन हो गया कि हो न हो, यह काम महात्मा जी का ही है। उनकी खोज में चारों ओर सैनिक दौड़ाए गए।
     उधर संत जंगल में चलते-चलते थक गए। वे जल्दी-जल्दी उस राज्य की सीमा से बाहर निकल जाना चाहते थे, लेकिन उनके पाँव थे कि साथ ही नहीं दे रहे थे। ऊपर से उन्हें भूख भी सताने लगी। सुबह से उन्होने कुछ नहीं खाया था। तभी उनकी नज़र फलों से लदे एक वृक्ष पर पड़ी। उन्होने कई फल तोड़कर खा लिए। वे फल दस्तावर थे, जिन्हें औषधि के रूप में काम में लाया जाता था। फल खाते ही साधू को भी दस्त लग गए। इतने दस्त हुए कि उनका पिछले की महीनों का खाया-पीया बाहर हो गया। वह निढ़ाल होकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। इतने में उनका हाथ कपड़ों में छिपे हार पर पड़ा। वे सोचने लगे- यह हार मेरे पास क्यों है? तभी उन्हें सारी बात याद आई। वे आत्मग्लानि से ग्रसित हो गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे चोरी भी कर सकते हैं। वे तुरंत उठकर राजा के पास पहुँचे। राजा को हार सौंपते हुए बोले-राजन्! यह रहा आपका हार। मैं इसे चुराकर ले गया था। इस पर राजा आश्चर्य से बोला-जब वापस ही करना था तो चुराया क्यों? संत बोले-राजन! आपके अन्न में ही गड़बड़ है। इसे खाकर ही मेरी मति भ्रष्ट हो गई और मैं हार चुराकर ले गया। पता करवाएँ कि आपका रसोइया खाना बनाते समय क्या सोचता है? राजा ने रसोइए को बुलाकर डाँटते हुए संत के कहे अऩुसार उससे पूछा। रसोइया डरते हुए बोला-महाराज, मेरी चोरी करने की आदत है और खाना बनाते समय भी मेरे मन में चोरी के विचार आते रहते हैं। इस पर संत बोले-लीजिए महाराज, पता चल गया कि मेरे विचार दूषित कैसे हुए। राजा बोले-जी मैं कुछ समझा नहीं। संत बोले-खाना बनाते समय रसोइए के मन में आने वाले चोरी आदि के नकारात्मक विचारों का असर भोजन के माध्यम से मुझ पर पड़ा। चूँकि मेरे विचार शुद्ध थे, इसलिए इतना समय लग गया, अन्यथा मैं पहले ही चोरी कर लेता।
     क्या अनोखी बात है। यह अविश्वसनीय लगती है, लेकिन ऐसा होता है। यह बात कई शोधों से साबित हो चुकी है कि भोजन पकाते समय पकाने वाले के मन में उठ रहे विचारों, उसकी मनःस्थिति का असर भोजन पर भी होता है। यही कारण है कि कई बार हम अनुभव करते हैं कि सब कुछ तो अच्छा है, फिर क्या बात है कि मन विचलित व व्यथित है। ऐसा इसलिए होता है कि उस दिन घर में भोजन पकाने वाली आपकी मां या पत्नी किसी बात पर निश्चित ही परेशान होगी, जिसका असर आप पर हो रहा है। इसलिए तो कहा जाता है- खाना बनाते समय अपने मन के भावों को शुद्ध रखना चाहिए। अच्छी-अच्छी बातें सोचनी चाहिए, जिससे कि भोजन करने वाले तक भी सच्ची और सकारात्मक बातें पहुँचे।
     कहते हैं कि आप जैसा खाते हैं, वैसा ही व्यवहार करते हैं। अगर आपका आहार शुद्ध है, पवित्र है तो आपकी आत्मा, आपकी काया, आपका मन-मस्तिष्क सभी कुछ स्वतः ही शुद्ध व पवित्र बना रहेगा। उपनिषद का श्लोक भी है- आहार शुद्धो, सत्व शुद्धि मतलब, यह कि आहार शुद्ध होगा तो उसका सार भी शुद्ध होगा अर्थात् आपके विचार व व्यवहार भी शुद्ध होंगे। इसीलिए भोजन पकाने वाले की यह ज़िम्मेदारी है कि वह भोजन पकाते समय वही भाव रखे, जो एक माँ रखती है। तभी तो हमें अपनी माँ के हाथ का बना खाना अच्छा लगता है, क्योंकि उसके पीछे का भाव भी शुद्ध होता है। इसलिए तो हम खाने के उस स्वाद को आजीवन नहीं भुला पाते। और अकसर कहते भी हैं कि माँ के बनाए खाने की तो बात ही कुछ और है।