Monday, March 21, 2016

दुत्कार कर नहीं पुचकार कर सुधारें


     एक बार ईसा मसीह कुछ दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों के साथ बैठकर भोजन कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते देखकर वहाँ उपस्थित लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ। उनकी नज़र में यह बहुत ही आपत्तिजनक बात थी। उन्होने ईसा मसीह के शिष्यों के सामने अपनी नाराज़गी जताई। वे बोले-तुम्हारा यीशु बातें तो बड़ी-बड़ी करता है, सही राह पर चलने का रास्ता बताता है और खुद गलत राह पर चलने वाले लोगों के साथ बैठकर खाता-पीता है। ऐसा नहीं होना चाहिए।
     शिष्यों ने जाकर यह बात यीशु को बताई। इस पर वे आपत्ति करने वाले लोगों के पास जाकर बोले-मैंने आपकी बात सुनी। इस बारे में मैं आप लोगों से कुछ कहूँ, इसके पहले आप मेरे एक सवाल का जवाब दीजिए। वह यह कि हकीम की सबसे ज्यादा ज़रूरत किसको होती है, एक अच्छे-भले सेहतमंद इन्सान को या फिर किसी बीमार को? सभी एक साथ बोले-सीधी-सी बात है, बीमार को। उनका जवाब सुनकर ईसा मसीह बोले- तो फिर मैं क्या गलत कर रहा हूँ। मैं भी इन दुर्जनों और अवाँछनीय लोगों के बीच बैठकर इसीलिए तो खाता-पीता हूँ, क्योंकि ये रोगी हैं और इन्हें हकीम की आवश्यकता है।
     दोस्तो, सही तो है। जो सही मार्ग से भटककर गलत राह पर चल पड़े हैं, बुरे कर्म करने लगे हैं, वे रोगी ही तो हैं। वे भी किसी वायरस की तरह समाज रूपी शरीर को अस्वस्थ कर सकते हैं, करते रहते हैं। यदि आप समाज को स्वस्थ प्रसन्न देखना चाहते हैं तो केवल अच्छी-अच्छी बातें करने से काम नहीं चलता। इसके लिए ज़रूरत है कि जो लोग राह भटक गए हैं, उन्हें सही राह दिखाई जाए। इसके लिए आपको उनके साथ उठना-बैठना पड़ेगा और उन्हें प्यार से समझाना पड़ेगा कि वे जो कर रहे हैं, वह गलत है। तभी तो वे आपकी बातों को सुनेंगे, समझेंगे और उन पर अमल करेंगे। इसकी बजाय यदि आप दूर से बैठकर ही उन्हें उपदेश देंगे तो फिर आपकी बात उन तक तो पहुँचने से रही। कुछ लोग मानते हैं कि गलत प्रवृत्ति के लोग दुत्कारने पर ही सुधरते हैं। नहीं, यह सोच बिलकुल सही नहीं है। इससे तो अधिकतर बात बनने की बजाय बिगड़ती ही है। यदि आप किसी को दुत्कार कर समझाने की बजाय उसे पुचकार कर समझाएँगे तभी वह आपकी बात पर ध्यान देगा और खुद को बदलने की कोशिश भी करेगा। इसलिए कभी भी किसी को नफरत की दृष्टि से मत देखो, नफरत से देखो उसकी बुराई को, उसके दुर्गुणों को। क्योंकि यदि वह दुर्गुुण उस व्यक्ति के अंदर नहीं होता तो फिर वह व्यक्ति भी आपके जैसा ही होता न। तो दुर्गुण को एक रोग समझकर और उससे पीड़ित व्यक्ति को रोगी समझकर उसका उपचार करें। जैसा कि यीशु और उनके ही जैसे महापुरुष करते आए हैं।
     दूसरी ओर, कुछ लोग यह सोचकर दुर्जनों या गलत लोगों से दूरी बनाकर रखते हैं कि यदि उनके नज़दीक जाएँगे तो उनकी संगत का असर हो सकता है, उनकी बुरी आदतों का वे भी शिकार हो सकते हैं। ऐसा सोचने वाले निश्चित ही डाँवाडोल प्रवृत्ति के होते हैं। उन्हें खुद पर भरोसा नहीं होता। तभी तो वे ऐसा सोचकर करते हैं। यदि उन्हें खुद पर भरोसा होता तो मजाल है कि दूसरों की बुरी आदतें उन्हें छू भी जाएँ। इसलिए सकारात्मक तरीके से सोचो कि जब आप सामने वाले से घुलोगे-मिलोगे तो आपके सद्गुणों का प्रभाव उन पर पड़ेगा। हो सकता है वे सुधर जाएँ और सही राह पर चल निकलें। यदि ऐसा हो गया तो आपकी ओर से समाज के लिए इससे अच्छी सौगात कुछ और हो ही नहीं सकती। इसलिए कभी भी न तो सामने वाले की और न ही अपनी बुराई से भागो। क्योंकि बुराई भागने से नहीं सामना करने से खत्म होती है। वैसे ही जैसे कि आप यह सोचें कि आप अपनी बीमारी से भागकर उससे मुक्ति पा सकते हैं, यह तो हास्यस्पद बात ही है। उससे मुक्ति तो उपचार से ही संभव है। ऐसे ही व्यक्ति के दुर्गुण रुपी रोग को सद्गुण रूपी औषधि से ही खत्म किया जा सकता है।

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