Friday, March 11, 2016

इच्छायें दुख रूप हैं।


     एक सेठ अपने विवाह योग्य बेटे कुमार पर शादी के लिए दबाव डाल रहा था, लेकिन वह तैयार नहीं था। दबाव ज्यादा बढ़ने पर कुमार ने एक युक्ति अपनाई। वह अपने पिता को एक रूपवती युवती की स्वर्ण प्रतिमा दिखाते हुए बोला-यदि इस प्रतिमा जैसी युवती मिल जाए तो मैं शादी के लिए तैयार हूँ। सेठ ने अपने सेवकों को मूर्ति लेकर कन्या को तलाशने भेज दिया।
     कई माह बीतने के बाद एक गाँव में वैसी ही कन्या मिल गई। सूचना मिलने पर सेठ ने रिश्ता पक्का करने के लिए कन्या सहित आने का प्रस्ताव उसके परिवार को भेजा। इधर कुमार के मन में भी लड्डू फूटने लगे। उसे उम्मींद न थी कि मूर्ति जैसी रूपवती कन्या हो भी सकती है। अब वह बस उसी के ख्वाबों में खोया रहता। कन्या के इंतज़ार में वह एक-एक पल बड़ी मुश्किल से गुजार रहा था। इस तरह कई दिन बीत गए लेकिन कन्या नहीं आई। वह यह सोचकर चिंतित हो गया कि कहीं कन्या ने विवाह प्रस्ताव ठुकरा तो नहीं दिया।
     उसकी उदासी देखकर माँ से रहा नहीं गया और उसने उसे अंततः बता ही दिया कि जिस कन्या का वह इंतज़ार कर रहा है, वह यहाँ आते समय रास्ते में बीमार होकर चल बसी। यह सुनते ही कुमार पछाड़ खाकर गिर पड़ा। तभी दरवाज़े पर बुद्ध आए। उन्होने कुमार से पूछा-युवक, तुम्हें कौन-सा दुःख खाए जा रहा है? कुमार बोला- दुनियाँ की सबसे रूपवती युवती और मेरी होने वाली पत्नी के मरने का मुझे बहुत दुःख है। उसके बिना मैं कैसे जी पाऊंगा। बुद्ध ने कहा-तुम्हें उस युवती के मरने का दुःख होता तो शायद तुम जी नहीं पाते। तुम्हें दुःख तो इस बात का है कि तुमने एक युवती को पाने की इच्छा की और जब वह इच्छा पूरी नहीं हुई तो तुम दुःखी हो उठे। इसलिए अपने आपको इच्छामुक्त बनाओ, तुम्हारा दुःख स्वतः ही दूर हो जाएगा।
     दोस्तो, सही तो है। उस युवक को युवती का नहीं, उसकी अधूरी रह गई इच्छा का दुःख था जिसे वह युवती से जोड़कर देख रहा था। जब उसे दुःख का कारण पता चल गया तो उसका दुःख भी जाता रहा। लेकिन अब बात यह आती है कि उस युवक के जैसी स्थिति तो लगभग हम सभी की होती है। हम सब भी तो इच्छाओं के शिकार हैं जो हमें दुःख पहुँचाती रहती हैं। हमारा ध्यान इनकी ओर न जाकर कहीं और अटका रहता है और हम उस व्यक्ति या वस्तु को लेकर परेशान होते रहते हैं जो हमें मिल न सकी।
     चूंकि हम असली गुनहागार के बारे में सोचते ही नहीं, इसलिए हमारे दुःखों का अंत नहीं होता। यदि आप दुःखों से, तनावों से मुक्त होना चाहते हैं तो इनका ठीकरा किसी और के सिर फोड़ने या मढ़ने से पहले एक बार अपने अंदर झाँककर देख लें कि कहीं मुसीबत की जड़ आपके अंदर ही तो नहीं बैठी है। यदि बैठी है तो उस जड़ को काट दें यानी इच्छा को मार दें। आप हो जाएँगे तनावमुक्त।
     कहा गया है कि मनुष्य के जीवन की दो दुःखांत घटनाएँ हैं। एक उसकी इच्छा की पूर्ति न होना और दूसरी इच्छा की पूर्ति हो जाना। यहाँ जानने-समझने वाली बात यह है कि इच्छा पूरी न होने से ज्यादा दुःखदायी है इच्छा पूरी हो जाना। इसका कारण यह है कि जब आप किसी चीज़ की इच्छा करते हैं तो वो जब तक पूरी नहीं होती, तब तक आप तनाव में रहते हैं। आपके अंदर एक भय पैदा हो जाता है कि यदि इच्छा पूरी नहीं हुई तो मेरा क्या होगा। इसी भय और तनाव के चक्कर में आपका सुख-चैन सब खो जाता है। फिर तो आपको न खाना, न पीना, न सोना न जागना, न उठना, न बैठना अच्छा लगता है। ऐसे में जब आपकी इच्छा पूरी नहीं होती तो आप टूट जाते हैं, निराश-हताश हो जाते हैं। इससे ऊबरने का एक ही तरीका है कि आप संभल जाएँ और वैसी इच्छा से बचें।
     दूसरी ओर, यदि एक बार इतनी सब मानसिक वेदनाएँ उठाने के बाद आपकी इच्छा पूरी हो गई तो फिर तो गई भैंस पानी में। क्योंकि तब आपके अंदर कोई दूसरी इच्छा पनपेगी और फिर चालू हो जाएगा तनावों से भरा वैसा ही दौर। इस तरह आपके भीतर एक के बाद दूसरी इच्छा जन्म लेती रहेगी और आपके जीवन को दूभर बनाती रहेगी। यहाँ हम यह नहीं कह रहे कि आप इच्छाएँ करें ही नहीं। ज़रूर करें, लेकिन उन्हें मर्यादा में रखें यानी इच्छाएँ आप पर नहीं, आप इच्छाओं पर हावी हों, तभी आप तनाव मुक्त होकर अपनी उचित और अनुचित इच्छा में भेद कर उनमें से उचित को पूरा कर पाएँगे।

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