Friday, February 5, 2016

भगाओ सुस्ती, लाओ चुस्ती और करो मस्ती


     इंडोनेशिया में कियाई सेंतार नाम का एक विद्वान हुआ। उसकी बुद्धिमत्ता के किस्से वहाँ पर उसी तरह कहे-सुने जाते हैं जैसे कि हमारे यहाँ तेनालीराम या मुल्ला नसरूद्दीन के। कियार्इं सेंतार को अपने काम के सिलसिले में कई बार बहुत दूर-दूर तक की यात्राएँ करनी पड़ती थीं। चूँकि उसके पास कोई साधन नहीं था इसलिए उसे अक्सर पैदल जाना पड़ता, जिसमें उसका बहुत अधिक समय लग जाता था। एक बार उसके दोस्त ने उसकी समस्या हल करने के लिए उसे एक गधा भेंट किया। गधा बहुत ही तंदुरुस्त था। उसे पाकर कियार्इं फूला नहीं समाया। उसने अपने दोस्त का जी-भर के शुक्रिया अदा किया। उसे लगा कि खुदा ने उसकी सुन ली। अब उसके सारे काम फटाफट हो जाएँगे। वह खुशी-खुशी गधे को लेकर घर गया और पूरे उत्साह और लगन से उसकी देखभाल करने लगा।
     वह अपने से ज़्यादा गधे की चिंता करता था। लेकिन धीरे-धीरे उसे समझ में आने लगा कि गधा दिखने में भले ही कितना भी ह्मष्ट-पुष्ट हो, स्वभाव से वह बहुत ही सुस्त और आलसी है। अब गधा अगर आलसी हो तो उसका होना न होना बराबर है। एक बार कियार्इं को जुमे की नमाज़ पढ़ने जाना था। वह भरी दोपहर में घर से निकल गया। रास्ते में उसे एक परिचित व्यक्ति मिला। वह बोला-"इतनी धूप में कहाँ जा रहो हो कियाई?' कियाई बोला-जुमे की नमाज़ पढ़ने। इस पर वह व्यक्ति बड़े आश्चर्य से बोला- अरे, लेकिन आज तो मंगलवार ही है। अभी तो ढाई दिन बाकी है। इस पर कियाई बोला-वो तो मुझे भी पता है, लेकिन क्या करूँ? मेरा गधा इतना सुस्त है कि आज चलूंगा, तभी जुमे को मस्जिद तक पहुँच पाऊंगा।
     दोस्तो, बेचारा कियाई! उसे क्या पता था कि "हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती।' यानी जिस गधे को देखकर उसे लग रहा था कि अब उसकी समस्या का हल हो गया, वही अब उसकी बड़ी समस्या बन गया। वैसे ऐसा अक्सर हम सभी के साथ होता है जब किसी व्यक्ति को ऊपरी तौर पर देखकर हमें लगता है कि यह हमारे बहुत ही काम का होगा। लेकिन बाद में जब हमारा उससे काम पड़ता है, तो पता चलता है कि वह किसी काम का नहीं। दूसरी ओर, कुछ लोग बातों के इतने धनी होते हैं कि उनकी बातों से यह गलतफहमी हो जाती है कि वे बहुत कुछ कर सकते हैं। हम उनकी बातों में आकर उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी सौंप देते हैं। बाद में हमें इस हकीकत से दो-चार होना पड़ता है कि वे सिर्फ बातों के धनी हैं। उन्हें ज़ुबान तो बहुत अच्छी तरह चलानी आती है, लेकिन उनसे हाथ-पाँव नहीं चलते। उनकी आवाज़ में जितनी तेज़ी है, शरीर में नहीं। काम में तो वे बहुत ही ढीले-ढाले हैं। किसी काम की डेडलाइन से उनका दूर-दूर तक का नाता नहीं होता। ऐसे लोगों को कोई भी महत्वपूर्ण काम सौंपना मुसीबत मोल लेना है, क्योंकि ये उसे समय पर पूरा कर ही नहीं सकते। इनकी गति इतनी सुस्त होती है कि काम समय पर पूरा हो जाएगा, इसकी गारंटी तो ये खुद भी नहीं दे सकते। ऐसे ही लोगों के लिए ही कहा गया है कि "नौ दिन चले अढ़ाई कोस।'
     यदि आप भी ऐसी ही प्रवृत्ति के हैं, तो हम आपसे कहना चाहेंगे कि यदि आप सफल होना चाहते हैं, तो सबसे पहले अपने व्यवहार की सुस्ती को भगाएँ, आलस को दूर करें। क्योंकि यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो सिर्फ सफलता के सपने ही देखते रह जाएँगे और दुनियाँ आपसे बहुत आगे निकल जाएगी। आज जमाना तेज़ी का है और ऐसे में घोंघे की चाल से चलकर दौड़ नहीं जीती जा सकती। यदि आपको आगे रहना है, तो नौ दिन में ढाई नहीं ढाई सौ कोस चलने की क्षमता होनी ज़रूरी है इसलिए अपनी गति बढ़ाएँ। यदि आप अपनी सुस्ती को भगाकर चुस्ती लाने में कामयाब हो गए तो आपके जीवन में मस्ती ही मस्ती है। यदि सुस्त गति से ही चलते रहे तो फिर आपकी हस्ती सस्ती हो जाएगी यानी आप सफलता की दौड़ में पिछड़ जाएँगे और कोई आपको नहीं पूछेगा।

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