Friday, February 26, 2016

क्रोध को किसने जीता?

     एक बार भृगु ऋषि इस बात का पता लगाने निकले कि क्रोध को किसने जीत लिया है? सबसे पहले वे कैलास पर्वत पर पहुँचे। भगवान शंकर उन्हें देखते ही गले लगाने के लिए आगे बढ़े, लेकिन भृगु ने अपने पाँव पीछे खींच लिए। भृगु के इस कृत्य को अपना अपमान मान वे क्रोध से तिलमिलाते हुए बोले-भृगु! जहाँ हो वहीं ठहर जाओ, वरना...। शंकर को क्रोधित देख पार्वती समझ गर्इं कि अब भृगु की खैर नहीं। उन्होने बीच-बचाव कर जैसे-तैसे भृगु को बचाया।
     भृगु वहाँ से सीधे ब्राहृलोक पहुँचे। ब्राहृा जी की दृष्टि उन पर पड़ी तो उन्हें देखकर वे मुस्करा दिए, लेकिन भृगु ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और उन्हें प्रणाम तक नहीं किया। ब्राहृाजी को ये बड़ा अटपटा लगा कि कोई उनके लोक में आए और उनका गुणगान करना तो दूर उन्हें प्रणाम तक न करे। बस फिर क्या था, क्रोध में आकर उन्होने भृगु पर अपनी खीझ निकालना शुरू कर दिया। भृगु को ब्राहृा जी से ये आशा न थी कि वे आपा खो बैठेंगे। बहुत कुछ सुनने के बाद वे चुपचाप वहाँ से खिसक लिए और सीधे क्षीरसागर पहुँचे जहाँ शेष सय्या पर भगवान विष्णु आँखें बंद किए विश्राम कर रहे थे। इसलिए उन्हें इसका पता भी नहीं चला कि कोई आया है। भृगु ने जाकर उनके वक्ष पर जोर से लात जमा दी। विष्णु हड़बड़ाकर उठ बैठे। जब उन्होंने भृगु को सामने पाया तो तुरंत हाथ जोड़कर बोले-क्षमा करें मुनिवर! मुझे आपके आने का पता ही नहीं चल पाया, इसलिए आपका स्वागत न करने की धृष्टता हो गई। इसके बाद उन्होने बड़ी विनम्रता से भृगु को एक आसन पर बैठाया और पूछा-मेरे वक्ष पर प्रहार करने से आपके पाँव में कहीं चोट तो नहीं लगी? विष्णु की बात सुनकर भृगु मंद-मंद मुस्कराने लगे। उन्हें पता चल गया था कि क्रोध पर विजय किसने हासिल की है।
     दोस्तो, कहते हैं क्रोध करके व्यक्ति अपने से छोटे व्यक्ति को अपने से बड़ा बना देता है, लेकिन विष्णु जी ने ऐसा नहीं होने दिया। उन्होने बता दिया कि वे वास्तव में बड़े क्यों हैं। एक तरह से देखा जाए तो विष्णु जी को लात मारकर भृगु ने उनका अपमान ही किया था, लेकिन तब भी उनकी धृष्टता पर वे नाराज़ नहीं हुए। इस तरह उन्होने भृगु से क्षमा माँगकर उन्हें ही उनकी धृष्टता के लिए क्षमा किया था। ऐसा ही व्यवहार किसी बड़े व्यक्ति को तब करना चाहिए जब कोई छोटा उनकी प्रतिष्ठा पर, उनके चरित्र पर कीचड़ उछालने या उनका अपमान करने की कोशिश करे। क्योंकि ऐसे में यदि वे उसकी गुस्ताखी पर अपना आपा खो बेठेंगे तो सामने वाले का उद्देश्य पूरा करने में सहायक ही बनेंगे।
     इसलिए यदि आप गलत नहीं हैं तो ऐसी स्थिति में खुद को शांत रखते हुए आपको सामने वाले के उकसावे में नहीं आना चाहिए। वह तो चाहता ही है कि आप भड़कें और कुछ ऐसा कदम उठाएँ कि लोग समझें कि ज़रूर इसने कुछ गलत किया होगा, तभी तो एक अदने-से व्यक्ति द्वारा किए गए अपमान को सह नहीं पा रहा है। इसलिए यदि आप सही हैं तो सामने वाले की कोशिश को नज़र अंदाज़ कर उसे क्षमा कर दें। यानी कह सकते हैं कि यदि छोटा करे अपमान तो उसे सहने में ही है आपकी शान। कहा भी गया है कि।
          क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
          का विष्णु को घटि गयो, जो भृगु ने मारी लात।।
सही तो है। विष्णु का क्या घटा। कुछ नहीं। उल्टे उनके प्रति श्रद्धा और बढ़ गई। आपके ऐसा करने से सामने वाला अपने दुस्साहस पर शर्मिंदा होकर आपके प्रति अच्छी भावना रखने लगेगा, साथ ही दूसरे लोगों की नज़रों में भी आपका सम्मान बढ़ जाएगा।
     इसलिए जितना हो सके क्रोध से बचो। लेकिन जहाँ ज़रूरत हो, वहाँ क्रोध करो भी। यहाँ सीखने वाली बात यही है कि आप केवल क्रोध का दिखावा करें, आपको वास्तव में क्रोध आए नहीं। यह बात हम पहले भी कह चुके हैं लेकिन फिर से दोहरा रहे हैं। क्योंकि क्रोध का कुछ पता नहीं कि कब अपने आगोश में लेकर आपके बने-बनाए काम को बिगाड़ दे। वैसे भी नाराज होना बहुत आसान काम है। कोई भी नाराज हो सकता है। इसमें कोई राज़ की बात भी नहीं है। लेकिन सही व्यक्ति से, सही समय पर, सही काम के लिए सही ढंग से और सही मात्रा में नाराज़ होना आसान नहीं। यदि आपने यह करना सीख लिया, फिर तो आप अपनी दुनियाँ पर आसानी से राज कर सकते हैं।

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