Wednesday, February 10, 2016

मैदान में उतरे हो तो हारना भी सीखो


     कौरव-पांडव एक साथ खेल-कूदकर बड़े हो रहे थे। हर खेल में पांडव कौरवों से बाजी मार लेते थे। फिर वह दौड़ हो, तीरअंदाजी हो, कुश्ती हो या फिर कोई और खेल। कुश्ती में तो भीम का कोई मुकाबला ही नहीं था। यहाँ तक कि दुर्योधन और उसके भाई मिलकर भी भीम को नहीं पछाड़ पाते थे। भीम के हाथों बार-बार हारने की वजह से दुर्योधन के मन में हीन भावना बैठ गई। वह भीम से छुटकारा पाने के उपाय सोचने लगा।
          एक बार वे सभी गंगा तट पर जलक्रीड़ा के लिए गए थे। भीम खाने-पीने के बहुत शौकीन थे। उनकी इस कमजोरी को दुर्योधन जानता था। जब सभी भाई खाने बैठे तो दुर्योधन ने भोजन में विष मिलाकर भीम को परोस दिया। भीम बिना सोचे-विचारे सारा भोजन चट कर गए। जल्द ही भीम के शरीर में विष फैलने लगा और वे अपने तंबू में जाकर लेट गए। लेटते ही उन पर बेहोशी छा गई। मौका देखकर दुर्योधन ने उन्हें रस्सियों से बाँधा और गंगा में फेंक दिया। डूबते हुए भीम नागलोग पहुँच गए। वहाँ के विषैले नागों ने शत्रु समझकर उन्हें डसना शुरू कर दिया। ज़हर ने ज़हर को मारा और उनके शरीर में फैले विष का असर खत्म हो गया। चेतना लौटने पर भीम सारी रस्सियाँ तोड़कर नागों से भिड़ गए। इस बीच, आर्यक नामक नाग ने उन्हें पहचान लिया और उनकी खूब आव-भगत की। कुछ दिन नागलोक रहने के बाद भीम सकुशल हस्तिनापुर लौट आए।
     दोस्तो, जानते हैं दुर्योधन ने किस भाव की कमी से ऐसा किया? दरअसल, उसके अंदर खेल भावना का अभाव था। इसी कारण वह अपनी हार को बरदाश्त नहीं कर पाता था और अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ किसी भी हद तक चला जाता था। बचपन से ही हार नहीं मानने की उसकी यह प्रवृत्ति बाद में महाभारत का कारण बनी जिसमें कि जीतने की इसी धुन ने उसने अपना और अपनों का सर्वनाश करा दिया। वैसे इस प्रवृति के लोग आपको आज भी मिल जाएँगे, जो खेल को खेल की तरह नहीं मानते और सामने वाले को हराने के लिए मैदान के बाहर के खेल भी खेलने लगते हैं। यदि आप भी इसी प्रवृत्ति के हैं तो भैया दुर्योधन के अंत से सबक लें।
     किसी भी तरह जीतने की सोचने वाले हमेशा जीतकर भी हार जाते हैं। क्योंकि इस तरह से वे अपनी जीत की खुशी का आनंद पूरी तरह नहीं उठा पाते। दूसरों की नज़र में वे भले ही विजेता हों, लेकिन उनकी अंतरात्मा इसे स्वीकार नहीं कर पाती। ऐसे में जब कोर्ई इनको बधाई देता है तो इनका मन आत्मग्लानि से भर जाता है। इस तरह ये जीतकर भी हार जाते हैं। इसलिए बेहतर यही है कि खेल को खेल की तरह ही खेलो। मैदान में उतरे हो तो हारना भी सीखो और हार बरदाश्त करना भी। यदि आप यह करना सीख गए तो यकीन मानिए फिर आपको कोई हरा नहीं पाएगा। यानी कुल मिलाकर खेल भावना का होना हर दृष्टि से ज़रूरी है।
     अब हम ज़िंदगी की ही बात करें। कहते हैं कि ज़िंदगी भी एक खेल है। इस खेल को खेलते समय भी यदि आपके अंदर खेल भावना का अभाव होगा तो आप ज़िंदगी के खेल को कभी नहीं जीत पाएँगे। क्योंकि आज के प्रतियोगी दौर में तो वही मैदान में टिक पाता है जिसके अंदर पराजय स्वीकारने का भाव होता है। वरना तो प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने के लिए उलटे-सीधे खेल खेलने वाले व्यक्ति का एक दिन खुद ही खेल बिगड़ जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ऐसे खेल खेलने वाला हो सकता है एक-दो बार अपने खेल में सफल हो जाए, लेकिन धीरे-धीरे लोग उसका खेल समझने लगते हैं। और वह दूसरों को खेल खिलाते-खिलाते एक दिन खुद ही अपने खेल में उलझ जाता है। यदि आप भी ऐसा ही कुछ कर रहे हैं तो समय रहते संभल जाएँ। हार को स्वीकार करना सीखें, क्येंकि जीत ही सब कुछ नहीं होती। आज हारे हो तो कल जीतोगे भी। कहा भी गया है कि जीत अपना पाला बदलती रहती है। आज किसी और के पाले में है तो कल आपके पाले में होगी। इसलिए हिम्मत मत हारो। क्योंकि हारकर जीतना संभव है, लेकिन हिम्मत हार जाओगे तो कभी नहीं जीत पाओगे।

No comments:

Post a Comment