Monday, February 1, 2016

निमित्त हो, खुद को निर्मित मत करो


     विनोबा भावे की माँ रखुबाई बहुत ही सद्चरित्र और सह्मदय महिला थीं। विनोबा भावे के व्यक्तित्व पर उनका बहुत प्रभाव था। उनके घर पर हर समय एक-दो ज़रूरतमंद विद्यार्थी रहते थे। वे उन्हें भोजन भी कराती और पढ़ाई-लिखाई में भी पूरा सहयोेग करतीं। वे उन बच्चों के साथ कभी परायों जैसा व्यवहार नहीं करती थीं, बल्कि उन्हें भी अपने बच्चे की तरह मानतीं, स्नेह करतीं। वे उन बच्चों को कभी भी बासी रोटियाँ नहीं खिलाती थीं। बासी रेटियाँ या तो वे खुद खाती या विनोबा को दे देती थीं। इस पर एक दिन चिढ़कर विनोबा बोले-"माँ, तुम कहती हो कि सबमें एक ही भगवान बसते हैं। किसी से भी भेदभाव नहीं करना चाहिए। तुम सबको एक ही दृष्टि से देखती हो, लेकिन यहाँ तुम हमारे साथ ही भेदभाव करती हो। उन विद्यार्थियों को तो तुम हमेशा ताज़ी रोटी बनाकर ही खिलाती हो और जब भी बासी रोटी बचती है, वह मुझे दे देती हो। तुम ऐसा क्यों करती हो?' इस पर रखुबाई बोली-" बेटा, सही कहता है तू। मैं तुझसे भेदभाव करती हूँ, क्योंकि अभी भी मेरा मोह नहीं गया है। तेरे अंदर मुझे अभी भी अपना पुत्र नज़र आता है और उन विद्यार्थियों में मैं अपने आराध्य ईश्वर को देखती हूँ। इसलिए तुझ पर अपना अधिकार समझकर बासी रोटी दे देती हूँ। जिस दिन तू भी बेटे जैसा नहीं दिखेगा, तुझे भी हमेशा ताज़ी-ताज़ी रोटियाँ बनाकर खिलाऊँगी।' विनोबा को माँ की बात समझ में आ गई और उनकी शिकायत दूर हो गई। उनके मनमें अपनी माँ के प्रति आदर और भी बढ़ गया।
     दोस्तो, दूसरों की सेवा-सहायता करने में यही भाव होना चाहिए, जहाँ दूसरों को अपने से भी बढ़कर समझा जाए और उनकी तकलीफों को अपना समझा जाए। लेकिन समाजसेवा करने वाले बहुत कम लोग सेवा करते समय ऐसा दृष्टिकोण रखते हैं। उनके लिए तो अपना अपना होता है और पराया पराया। उनका सेवाभाव रखुबाई से एकदम विपरीत भाव लिए होता है। जहाँ वे सेवा भावना से सेवा नहीं करते बल्कि इसलिए करते हैं कि उन्हें इसके माध्यम से मेवा मिलता है और जिनकी वजह से वे मेवा खाते हैं, उनको खिलाते हैं सूखी-बासी रोटियाँ। इस तरह समाजसेवा इनके लिए सेवा नहीं धंधा होती है। निश्चित ही आप भी ऐसे कई धंधेबाजों को जानते होंगे जो बने ही इस सेवा के धंधे से हैं और जिनके नाम पर ये बने हैं, उन्हें तो यह अहसास भी नहीं है कि ये इनके सामने दो-चार सूखी रोटियाँ डालकर खुद घी पी रहे हैं। आप कहेंगे कि समाजसेवा में घी कैसा? अरे भाई, समाजसेवा के नाम पर मिलने वाली सहायता राशि, दान-दक्षिणा, चंदा आदि कहाँ जाता है? उसका हिसाब-किताब किसके पास है? किसी के पास नहीं।
     यदि आप भी ऐसी ही सेवाओं में लिप्त हैं तो हम आपसे कहना चाहेंगे कि एक न एक दिन इसका आपको हिसाब देना ही होगा। यहाँ नहीं तो वहाँ तो हिसाब देना ही पड़ेगा। इसलिए बेहतर है कि ऐसी नौबत आने से पहले ही ज़रूरतमंदों को ईश्वर का रूप समझकर, उन्हें अपना समझकर, उनकी सहायता करें, सेवा करें। जो जिसका है, उसे उस तक पहुँचाएं भी। आप किस्मत वाले हैं कि ऊपर वाले ने आपको सेवा करने के लिए निमित्त बनाया है। इसलिए निमित्त ही बने रहें, अपने आपको निर्मित करने में न लग जाएँ। यानी सेवा के नाम पर धन-दौलत न बटोरने लगें।

No comments:

Post a Comment