Monday, January 18, 2016

भाव खाओगे तो कोई नहीं देगा भाव !


     समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर को एक बार बर्दवान में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया। विद्यासागर रेलयात्रा कर वहाँ पहुँचे। बर्दवान का स्टेशन बहुत ही छोटा था। वे वहाँ उतर कर इधर-उधर देखने लगे। उन्हें कोई नज़र नहीं आया। तभी कुली-कुली की आवाज़ सुनकर उन्होने अपनी नज़रें घुमार्इं। उन्होने देखा कि सूट-बूट पहने एक युवक उन्हें कुली समझकर अपने पास बुला रहा है। क्योंकि वे एक आम आदमी की तरह साधारण कपड़े ही पहनते थे। लगता ही नहीं था कि वे इतने बड़े समाज सुधारक हैं। इसके चलते अकसर ही लोग उन्हें पहचानने में भूल कर जाते थे। विद्यासागर उसके पास पहुँचे तो वह अपने छोटे-से सूटकेस की ओर इशारा करते हुए बोला-"क्या मेरा यह सामान उठाओगे?' विद्यासागर बोले- "हाँ, हाँ, क्यों नहीं' इसके बाद उन्होने उसका सूटकेस उठा लिया और उसके पीछे-पीछे चलने लगे। रास्ते में उन्होने पूछा- क्षमा कीजिए श्रीमान् इस छोटी सी जगह पर आप जैसे भद्रपुरुष का कैसे आना हुआ? वह व्यक्ति बोला- तुमने विद्यासागर जी का नाम तो ज़रूर सुना होगा। वे कल यहाँ भाषण देने वाले हैं। उसी को सुनने के लिए मैं बहुत लंबी यात्रा करके यहाँ आया हूँ। इतने में वे प्लेटफार्म के बाहर आ गए। उस युवक ने जेब में हाथ डालकर पैसे निकाले और विद्यासागर को देने लगा तो उन्होने लेने से इंकार कर दिया।
     अगले दिन आयोजन स्थल पर विद्यासागर भाषण देने के लिए खड़े हुए तो उन्हें देखकर वह युवक शर्म के मारे पानी-पानी हो गया। वह तुरंत उनके पास पहुँचा और उनके पैरों में गिरकर बोला- मुझे माफ कर दीजिए श्रीमान्! मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई जो आप जैसे महापुरुष को पहचान नहीं पाया। विद्यासागर ने उसे उठाया और बोले- आप अपना सामान स्वयं उठाने में शर्म महसूस कर रहे थे, इसलिए मैने उठा लिया। अपने हाथ से काम करने से आदमी छोटा नहीं हो जाता। मुझे खुशी होगी यदि भविष्य में आप अपना सामान स्वयं उठाने में झिझक और हिचक का अनुभव नहीं करेंगे।
     दोस्तो, सही तो है। अपना सामान उठाने में कैसी शर्म, कैसी झिझक। अपना काम करना कोई गलत बात तो नहीं। यह तो गर्व की बात है। लेकिन उस युवक की तरह बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो बोझ उठाने जैसे, काम को अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। ऐसे लोगों को हम बता दें कि ऐसा करने से शान घटती नहीं, बढ़ती ही है। अब देखिए ना, इस प्रसंग से किसकी शान बढ़ी? निश्चित ही विद्यासागर जी की, जिन्होने अपना तो छोड़ो, दूसरे का वजन उठाने में भी शर्म महसूस नहीं की। उन्हें इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ा कि वह युवक उन्हें कुली समझ रहा था। उन्होने तो उस युवक के कहने से उसका सामान उठाकर न केवल उसे सीख दे दी, बल्कि यह भी प्रमाणित कर दिया कि वे वाकई महापुरुष थे।
     इसलिए आवश्यकता पड़ने पर जब आप अपनी क्षमता के अनुसार अपने सामान का बोझ उठाएँगे, तभी तो आप जीवन से जुड़े दूसरे बोझों को भी उठाना सीखेंगे। उनको उठाने से करताएँगे नहीं। जैसे कि काम का बोझ, जिम्मेदारियों का बोझ, परिवार का बोझ या इसी तरह का कोई अन्य बोझ। दूसरी ओर, आप कितने ही बड़े आदमी क्यों न बन जाएँ, कितनी ही ऊँचाइयों पर क्यों न पहुँच जाएं, आपको अपनी सहजता नहीं छोड़नी चाहिए, क्योंकि सहजता ही महानता की निशानी होती है। यदि आपने इसे छोड़ दिया तो एक दिन आपको अपने आप से घुटन होने लगेगी। आखिर आदमी बनावटी जीवन कब तक जी सकता है। यदि ऊँचाई पर पहुंचकर भी आप पहले जैसे ही बने रहेंगे तो इससे आपका कद और बढ़ेगा ही। जो लोग थोड़ी सी भी ऊँचाई पर पहुँचकर असहज हो जाते हैं यानी अपने मित्रों, परिजनों और परिचितों से दूरियाँ बनाने लगते हैं, वे और अधिक ऊँचाई पर नहीं जा पाते। क्योंकि उनके व्यवहार से लोग उनका साथ छोड़ने लगते हैं। कहते भी हैं ना कि भाव खाने वालों को कोई भाव नहीं देता। और जब लोग भाव नहीं देंगे तो फिर आपके भाव नीचे गिर जाएँगे यानी आप प्रगति नहीं कर पाएँगे।
     इसलिए आज से यह संकल्प करें कि आप जैसे अंदर से हैं, वैसे ही दिखेंगे, वैसे ही रहेंगे। चाहे आप कितने ही बड़े क्यों न हो जाएँ। कभी अपनी सहजता नहीं खोएँगे। इससे आप सबके चहेते बने रहेंगे और सही अर्थों में बड़े आदमी भी कहलाएंगे।

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