Friday, January 8, 2016

14.01.2016 ऊँचाई का आधार, श्रेष्ठ मूल्य और संस्कार


बहुत समय पहले की बात है। महाराष्ट्र में किसी जगह एक गुरु का आश्रम था। दूर-दूर से विद्यार्थी उनके पास अध्ययन करने के लिए आते थे। उसके पीछे कारण यह था कि गुरु जी नियमित शिक्षा के साथ व्यावहारिक शिक्षा पर भी बहुत ज़ोर देते थे। उनके पढ़ाने का तरीका भी अनोखा था। वे हर बात को उदाहरण देकर समझाते थे जिससे शिष्य उसका गूढ़ अर्थ समझकर उसे आत्मसात कर सकें। वे शिष्यों के साथ विभिन्न विषयों पर शास्त्रार्थ भी करते थे ताकि जीवन में यदि उन्हें किसी से शास्त्रार्थ करना पड़े तो वे कमज़ोर सिद्ध न हों।
     एक बार एक शिष्य गुरु के पास आया और बोला-गुरु जी! आज मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ। गुरुजी बोले ठीक है, लेकिन किस विषय पर? शिष्य बोला- आप अकसर कहते हैं कि सफलता की सीढिंयाँ चढ़ चुके मनुष्य को भी नैतिक मूल्य नहीं त्यागने चाहिए। उसके लिए भी श्रेष्ठ संस्कारों रूपी बंधनों में बँधा होना आवश्यक है। जबकि मेरा मानना है कि एक निश्चित ऊँचाई पर पहुँचने के बाद मनुष्य का इन बंधनों से मुक्त होना आवश्यक है, अन्यथा मूल्यों और संस्कारों की बेड़ियाँ उसकी आगे की प्रगति में बाधक बनती हैं। इसी विषय पर मैं आपके साथ शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ।
     शिष्य की बात सुनकर गुरु जी कुछ सोच में डूब गए और बोले-हम इस विषय पर शास्त्रार्थ अवश्य करेंगे, लेकिन पहले चलो चलकर पतंग उड़ाएं और पेंच लड़ाएँ। आज मकर संक्रान्ति का त्यौहार है। इस दिन पतंग उड़ाना शुभ माना जात है। गुरु जी की बात सुनकर शिष्य खुश हो गया। दोनों आश्रम के बाहर मैदान में आकर पतंग उड़ाने लगे। उनके साथ दो अन्य शिष्य भी थे जिन्होने चकरी पकड़ी हुई थी। जब पतंगे एक निश्चित ऊँचाई तक पहुँच गई तो गुरु जी शिष्य से बोले- क्या तुम बता सकते हो कि ये पतंगें आकाश में इतनी ऊँचाई तक कैसे पहुँची? शिष्य बोला-जी गुरु जी! हवा के सहारे उड़कर ये ऊँचाई तक पहुँच गई। इस पर गुरु जी ने पूछा- अच्छा तो फिर तुम्हारे अनुसार इसमें डोर की कोई भूमिका नहीं है? शिष्य बोला-ऐसा मैने कब कहा? प्रारंभिक अवस्था में डोर ने कुछ भूमिका निभाई है, लेकिन एक निश्चित ऊँचाई तक पहुँचने के बाद पतंग को डोर की आवश्कता नहीं रहती। अब तो और आगे की ऊँचाईयाँ वो हवा के सहारे ही प्राप्त कर सकती है। अब देखिये गुरु जी! डोर तो इसकी प्रगति में बाधक ही बन रही है न? जब तक मैं इसे ढील नहीं दूँगा, यह आगे नहीं बढ़ सकती। देखिए इस तरह मेरी आज की बात सिद्ध हो गई। आप स्वीकार करते हैं इसे?
     शिष्य के प्रश्न का गुरु जी ने कुछ जवाब नहीं दिया और बोले-चलो अब पेंच लड़ाएँ। इसके पश्चात् दोनों पेंच लड़ाने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान में पेंच नहीं लड़ रहे बल्कि दोनों के बीच पतंगों के माध्यम से शास्त्रार्थ चल रहा हो। अचानक एक गोता देकर गुरु ने शिष्य की पतंग को काट दिया। कुछ देर हवा में झूलने के बाद पतंग ज़मीन पर आ गिरी। इस पर गुरु जी ने शिष्य से पूछा-पुत्र! क्या हुआ? तुम्हारी पतंग तो ज़मीन पर आ गिरी। तुम्हारे अनुसार तो उसे आसमान में और भी ऊँचाई को छूना चाहिए था। जबकि देखो मेरी पतंग अभी भी अपनी ऊँचाई पर बनी हुई है, बल्कि डोर की सहायता से यह और भी ऊँचाई तक जा सकती है। अब क्या कहते हो तुम? शिष्य कुछ नहीं बोला। वह शांत भाव से सुन रहा था। गुरु जी ने आगे कहा-दरअसल तुम्हारी पतंग ने जैसे ही मूल्यों और संस्कारों रूपी डोर का साथ छोड़ा, वो ऊँचाई से सीधे ज़मीन पर आ गिरी।
     यही हाल हवा से भरे गुब्बारे का भी होता है। वह सोचता है कि अब मुझे किसी और चीज़ की ज़रूरत नहीं और वह  हाथ से छूटने की कोशिश करता है। लेकिन जैसे ही हाथ से छूटता है, उसकी सारी हवा निकल जाती है और वह ज़मीन पर आ गिरता है। गुब्बारे को भी डोरी की ज़रूरत होती है, जिससे बँधा होने पर ही वह अपने फूले हुए आकार को बनाए रख पाता है। इस तरह जो हवा रूपी झूठे आधार के सहारे टिके रहते हैं, उनकी यही गति होती है।
     शिष्य को गुरु जी की सारी बात समझ में आ चुकी थी और पतंगबाज़ी का प्रयोजन भी। शास्त्रार्थ के इस अनोखे प्रयोग से अभिभूत वह अपने गुरु के कदमों में गिर पड़ा। गुरु जी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा आज से तुम्हारे जीवन का सूर्य भी उत्तरायण की ओर गति करे और बढ़ते दिनों की तरह तुम जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति करो।
    

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